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________________ साधक के कर्तव्य धर्मप्रेमी बन्धुओ, माताओ एवं बहनो ! संवर तत्व पर हमारा विवेचन चल रहा है । संवर के सत्तावन भेद हैं और उसमें सत्ताईसवाँ भेद 'सक्कार-पुरकार परिषह' बताया गया है। इस परिषह पर कल 'श्री उत्तराध्ययन सूत्र' के दूसरे अध्याय को अड़तीसवीं गाथा को हमने लिया था और उस पर विचार-विमर्श किया था। आज हमें ३९वीं गाथा को लेना है, वह इस प्रकार है अणुक्कसाई अप्पिच्छे, अन्नाएसी अलोलुए। रसेसु नाणुगिज्ञज्जा, नाणुतप्पेज्ज पन्नवं ॥ यह गाथा साधु-साध्वियों के लिए बहुत ही विचारणीय है, क्योंकि इसमें उन्हें किस प्रकार रहना चाहिये यह बताया गया है। इसलिए हम इसमें दिये गये शब्दों को क्रमानुसार लेंगे। (१) अल्प कषाय गाथा में दिया गया पहला शब्द है-'अणुक्कसाई', अणुक्कसाई का अर्थ है अनुकषाई यानि कम कषाय होना । आप कहेंगे कि कषाय तो रहे ही क्यों ? इसका तो सर्वथा नाश होना चाहिए तथा यही उपदेश भी दिया जाना चाहिये । आपका यह विचार ठीक भी है किन्तु मञ्जिल पर कोई एकदम नहीं पहुंच सकता, उसे पाने के लिए मार्ग तो तय करना ही होगा। मकान के ऊपरी खण्ड पर पहुँचने के लिए व्यक्ति जिस प्रकार सीढ़ियों पर चढ़ता है और क्रमशः सीढ़ियाँ पार करता हुआ उस पर पहुँचता है, उसी प्रकार संवर, मार्ग अथवा वे सीढ़ियाँ हैं, जिन पर क्रमशः चढ़ता हुआ व्यक्ति मुक्ति रूपी सर्वोच्च मञ्जिल पर जा पहुँचता है। इस प्रकार कषायों का सर्वथा नाश होने पर तो केवलज्ञान हो जाता है, पर उसकी प्राप्ति से पहले तो कषायों को कम करते जाना साधक के लिए आवश्यक है। इन्हें कम से कम करते जाने पर ही केवलज्ञान रूपी स्थिति तक पहुंचा जा सकेगा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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