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________________ ३१८ आनन्द प्रवचन | छठा भाग यह सुनकर पुनः दोनों ने अलग-अलग प्रश्न किया-"क्या मैं साधु नहीं भक्त मुस्कुराकर बोला- "इस बात पर आप स्वयं विचार कीजिये कि अगर आप दोनों ही सच्चे साधु होते तो क्या यह पूछने के लिए लौटकर यहाँ तक आते कि मैंने किसे नमस्कार किया था ?" यह सुनते ही दोनों संतों की आँखें खुल गईं और उन्हें समझ में आ गया कि नमस्कार किये जाने की इच्छा रखना साधु के लिए अनुचित है। दोनों ने अपनी भूल पर हार्दिक पश्चात्ताप करते हुए पुनः मार्ग पकड़ा। शास्त्रकार भी यही कहते हैं कि साधु को कभी यह इच्छा नहीं करनी चाहिए कि लोग मुझे नमस्कार करें। साथ ही अगर कोई राजा-महाराजा या सेठ-साहूकार उन्हें नमस्कार करे तो इस बात का गर्व नहीं करना चाहिए कि मुझे इतने धनाढ्य या बड़े-बड़े व्यक्ति नमस्कार करते हैं। ___ यहाँ एक बात ध्यान में रखने की है कि कुछ व्यक्ति ऐसी शंका भी कर सकते हैं कि सम्मान-सत्कार तो मन को सुख-पहुंचाने वाली बातें हैं, फिर इन्हें परिषहों में क्यों माना जाता है ? परिषह तो कष्ट पहुँचाते हैं। इसका उत्तर यही है कि अन्य परिषह जहाँ शरीर और मन को प्रत्यक्ष में कष्ट पहुँचाते हैं, ये परिषह यद्यपि प्रत्यक्ष में तो मन को सुखी करते हुए दिखाई देता है किन्तु वह सुख वास्तविक नहीं होता और सम्मान-सत्कार की प्राप्ति मन में अहंकार का उदय करके आत्मा को कालान्तर में कष्ट पहुँचाती है। इसीलिए इस परिषह को अनुकूल परिषह भी कहा गया है। बाईस परिषहों में से बीस परिषह तो प्रतिकूल माने जाते हैं और दो परिषह अनुकूल । सत्कार-परिषह भी अनुकूल परिषह अब हम पूर्व में कही गई गाथा के दूसरे शब्द पर आते हैं, जिसकी चाह का भी मुनि के लिए निषेध किया गया है। बन्धुओ ! मुनि के लिए निषेध किया गया है इससे आप यह अर्थ न लगाएँ कि यह निषेध केवल मुनि या साधु के लिए ही है, श्रावकों के लिए नहीं । आप जानते हैं कि जिस प्रकार साधु अपनी आत्मा को कर्मों से सर्वथा मुक्त करना चाहते हैं, उसी प्रकार आप श्रावक भी तो मुक्ति की कामना करते हैं। दोनों का उद्देश्य एक ही है। इसलिए जिस प्रकार मुनि को समभावपूर्वक अनुकूल एवं प्रतिकूल परिषहों को सहन करके संवर का आराधन करना चाहिए, उसी प्रकार श्रावकों को भी यथाशक्य संवर मार्ग पर चलना चाहिए। तो अब हमें शास्त्र की गाथा में दिये गये दूसरे शब्द को समझना है और वह है-अब्भुट्ठाणं । इसका अर्थ है-अभ्युत्थान, अर्थात् उठकर खड़ा होना । यह शिष्टा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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