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________________ सम्मान की आकांक्षा मत करो धर्मप्रेमी बन्धुओ, माताओ एवं बहनो ! काफी समय से हम संवर तत्व को लेकर चल रहे हैं और उसमें आने वाले परिषहों में से 'जल्ल परिषह' का विवेचन कर चुके हैं । आज संवर के सत्ताईसवें भेद को लेना है जिसका नाम है 'सक्कार-पुरस्कार परिषह' । साधारणतया हम देखते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति दूसरों के द्वारा सत्कार और सम्मान पाने की अभिलाषा रखता है। भले ही वह सम्मान और आदर पाने की योग्यता न रखता हो, फिर भी अपमान और अनादर प्राप्त करना वह पसन्द नहीं करता तथा सम्मानित किये जाने की आकांक्षा रखता है। किन्तु ऐसी आकांक्षा या चाह साधना के मार्ग पर चलने वाले साधक के मार्ग का रोड़ा बन जाती है। क्योंकि यह चाह मन में विकारों को आमन्त्रित करती है तथा कषायों को जन्म देती है । स्वाभाविक ही है कि जो सम्मान चाहता होगा, वह अपमान किये जाने पर क्रोधित होगा और सम्मान पाने पर अहंकार से भर जायेगा। इसलिए साधक को सत्कार एवं सम्मान की चाह को परिषह समझकर त्याग देना चाहिए । श्री उत्तराध्ययन सूत्र' के दूसरे अध्याय की अड़तीसवीं गाथा में भगवान महावीर ने कहा है-- अभिवायणमब्भुट्ठाणं, सामी कुज्जा निमंतणं । जे ताइं पडिसेवन्ति, न तेसि पीहए मुणी ॥ इस गाथा में जिन तीन बातों की चाह का भगवान ने मुनियों के लिए निषेध किया है उनमें से प्रथम है-अभिवायण । अभिवायण प्राकृत भाषा का शब्द है जिसे संस्कृत में अभिवादन कहा जाता है । इसे हम नमस्कार भी कहते हैं। तो शास्त्र में मुनि के लिए नमस्कार किये जाने की इच्छा करने का निषेध किया गया है । आशय यही है कि मुनि न तो स्वतः किसी के द्वारा नमस्कार किये जाने की इच्छा रखे और न ही किसी और को नमस्कार किया जाता देखकर भी ऐसा विचार करे कि लोग मुझे नमस्कार करें। क्योंकि इस विचार या आकांक्षा में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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