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________________ ३१२ आनन्द प्रवचन | छठा भाग कलावती स्वयं ही परेशान थी, पर उसने कहा - "मैंने तो दासी को देखा भी नहीं, हाँ यहाँ, आले में एक आम अवश्य रखा था, शायद उसे ही खाकर वह मर गई होगी। उसके ओठों पर आम का रस लगा हुआ है तथा गुठली भी पड़ी है।" लीलावती बोली- "आम खाने से भी कोई मरता है क्या ? इसे जरूर कलावती ने किसी प्रकार मारा है ।" इस तरह यहाँ बातचीत हो ही रही थी कि इतने में राजवैद्य ने राजा को चुपचाप सूचना भेजी कि आज बड़ी महारानी लीलावती ने मुझसे कालकूट विष मँगवाया था, वह क्यों मँगाया गया था? कलावती ने भी कहा कि आम मेरे पास नहीं था, वह बड़ी रानी लीलावती ने मुझे खाने के लिए भेजा था। इस प्रकार सारी बात स्पष्ट हो गई और राजा ने लीलावती की भर्त्सना करते हुए कलावती के सतीत्व एवं धर्म की प्रशंसा की तथा कहा -"धर्म के प्रताप से ही तुम बाल-बाल बच गई हो । अगर आज तुम्हारे नियम न होता और तुम लीलावती के द्वारा भेजे हुए आम को खा लेतीं तो दासी के स्थान पर आज मैं तुम्हें खो चुका होता।" तो बंधओ, कहने का आशय यही है कि रानी कलावती ने गर्भवती होने के कारण दोहद होते हुए भी अपनी आम खाने की इच्छा का निरोध किया और उसके परिणामस्वरूप मृत्यु के मुख से बच गई । केवल एक इच्छा का निरोध होने पर ही जब वह एक बार की मृत्यु से बच गई तो अनेकानेक इच्छाओं का निरोध करने वाला व्यक्ति पुनः-पुनः मृत्यु से क्यों नहीं बच सकता ? यानी अवश्य बच सकता है । अत: प्रत्येक आत्मार्थी को इच्छानिरोध-तप का आदर करना चाहिए तथा उसे अपनाकर बार-बार जन्म और मरण से बचने का प्रयत्न करना चाहिए। अब हमें लेना है गाथा की चौथी बात । वह हैतरुणावस्था में इन्द्रियों का निग्रह __इस संसार में मनुष्य के लिए धन, मान, यश एवं कीति आदि नाना प्रलोभनों की वस्तुएँ विद्यमान हैं और मानव इन्हीं के आकर्षण में पड़ा हुआ अनेकानेक विडम्बनाएँ भोगता है। किन्तु इन सबसे बड़ा आकर्षण या प्रलोभन एक और है तथा वह है काम-भोग । यह विकार संसार के समस्त विकारों से प्रबल और उग्र होता है। प्रत्येक प्राणी इसके अधीन होते हैं चाहे वह पशु, पक्षी या मनुष्य हों । काम-विकार बड़े-बड़े योगियों को भी भोगियों की श्रेणी में उतार लाता है । इसकी व्यापकता और प्रबलता को बताते हुए कहा गया है ज्ञानी हू को ज्ञान जाय ध्यानी हू को ध्यान जाय, मानी हू को मान जाय सूरा जाय जंग ते । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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