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________________ आनन्द प्रवचन | छठा भाग तो हाड़-मांस के एक व्यक्ति के लिए भी जब स्त्री अपने शरीर के सजाने का मोह छोड़ देती है तो फिर मुनि तो अपनी आत्मा को परमात्मा के रूप में लाने का सर्वोत्कृष्ट लक्ष्य अपने सामने रखता है और उसे पूरा करने के उद्देश्य में जब जुट जाता है तो फिर शरीर को नहलाने, धुलाने और सजाने में वह कब अपने मन को लगा सकता है ? शरीर की शुश्रूषा करने पर मन की वृत्ति में फर्क आ जाता है । हमारे बुजुर्ग तो यह कहते रहे हैं कि अगर कपड़ा फट जाय और नया पहनना पड़े तो शरीर पर पहने जाने वाले सभी वस्त्र नये नहीं होने चाहिए । एक कपड़ा नया हो तो अन्य पुराने होने चाहिए । इस प्रकार शरीर को आकर्षक बनाने का प्रयत्न न करके इन्द्रियों पर संयम रखने से संवर के मार्ग पर चला जा सकता है । २७८ साधक को तो दृढ़ संकल्प के साथ अपनी आत्म-शुद्धि करके आत्मा के शुद्ध स्वरूप को प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए । शरीर की शुद्धि में लगा रहने से उसे क्या हासिल हो सकता है ? कुछ भी नहीं, यह शरीर तो चाहे मलिन रहने दिया जाय या सजाकर रखा जाय एक दिन निश्चय ही नष्ट हो जायगा । किन्तु अगर आत्मा को शुद्ध कर लिया जाएगा तो सदा के लिए शाश्वत सुख की प्राप्ति हो जाएगी और फिर शरीर धारण करने की जरूरत ही नहीं रहेगी । इसलिए साधक को चाहिए कि वह अपनी आत्म-शक्ति पर दृढ़ विश्वास रखता हुआ यह चिन्तन करे— ऐ जजवाए दिल ! गर मैं चाहूँ, हर चीज मुकाबिल आ जाए । मंजिल के लिए दो गाम चलूँ, सामने मंजिल आ जाए || इस उर्दू भाषा के पद्य में गाम का अर्थ है कदम | आप विचार करेंगे कि क्या दो कदम चलने का निश्चय कर लेने पर ही मंजिल मिल सकती है ? अवश्य मिल सकती है । यद्यपि मोक्ष की मंजिल जीव को कई-कई जन्म तक चलने पर प्राप्त होती है, किन्तु गजसुकुमाल मुनि उस मंजिल को प्राप्त करने के लिए कितना चले थे ? केवल एक रात्रि, संभवत वह भी पूरी नहीं निकल सकी थी। अपनी माता के हाथ से खाये हुए अन्न के पश्चात् संयमी जीवन में संभवतः उन्होंने पुनः अन्न भी ग्रहण नहीं किया था । साधना के जीवन में एक दिन चलकर ही उन्होंने शिवपुर की लम्बी मंजिल हासिल करके अक्षय सुख और शांति प्राप्त कर ली थी । तो बंधुओ, परिषहयुक्त साधना का मार्ग कठिन अवश्य है किन्तु आत्म-शक्ति की दृढ़ता उसे अवश्यमेव पार लगा देती है । इसीलिए भगवान का कथन है कि परिषहों के कारण तनिक भी विचलित न होते हुए साधक को संवर के मार्ग पर बढ़ना चाहिए और ऐसा करने पर ही मुक्ति रूपी मंजिल प्राप्त हो सकती है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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