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________________ अस्नान व्रत २७१ शुद्ध हो भी कैसे ? जिसे हम शरीर कहते हैं तथा बड़ा सुन्दर मानते हैं, यह चमड़े की एक थैली ही तो है जिसमें रक्त, मांस, चर्बी और पुरीष भरा हुआ है तथा नौ द्वार भी निरन्तर अशुद्ध चीजों को बहाते रहते हैं । भला यह पुनः पुनः या असंख्य बार धोने पर भी शुद्ध हो सकता है क्या? फिर घृणित वस्तुओं से भरे हुए ऐसे शरीर को साधु ऊपर से मल लग जाने पर उसे धोने की आकांक्षा किसलिये करे ? उसे तो इसका यथार्थ रूप समझकर इससे सर्वथा उदासीन रहना चाहिए। तो बन्धुओ, कहने का अभिप्राय यही है कि जो साधु आत्मार्थी होते हैं वे शरीर को शुद्ध बनाने की अपेक्षा आत्मा को शुद्ध करने का प्रयत्न करते हैं। शरीरशुद्धि की अपेक्षा उन्हें आत्म-शुद्धि अनन्त गुनी लाभदायक महसूस होती है। आप लोग व्यापारी हैं और प्रत्येक व्यापारी ऐसी ही वस्तु का व्यापार करना पसन्द करता है, जिसमें अधिक लाम की सम्भावना हो । मुनि भी आध्यात्मिक दृष्टि से व्यापारी कहला सकते हैं अतः वे भी जो कुछ करते हैं अधिक लाभ की आकांक्षा को लेकर करते हैं। आप सांसारिक पदार्थों का व्यापार करके अधिक धन का लाभ चाहते हैं और सन्त अपनी साधना, ध्यान, चिन्तन एवं मनन आदि के द्वारा अधिकाधिक कर्मनिर्जरा का लाभ उठाने के प्रयत्न में रहते हैं। वे श्रुत और चारित्र रूप प्रधान आर्यधर्म को ग्रहण करने के पश्चात् घाटे में रहना पसंद नहीं करते । ऐसी स्थिति में अगर शरीर के क्षणिक सुख की ओर उनका ध्यान रहे तो निश्चय ही उन्हें घाटा या हानि होती है अतः इसकी ओर से वे विरक्त या उदासीन रहकर आत्मा के सुख रूपी अक्षय लाभ की ओर दृष्टि रखते हैं। आप व्यापारियों का लक्ष्य धन है और मुनियों का लक्ष्य मोक्ष । मुनिराज आर्य धर्म को अपनाने के पश्चात् अनार्य वृत्ति की ओर दृष्टिपात नहीं करते । आर्यत्व कैसे स्थिर रहे ? ठाणांग सूत्र में जाति, कुल, ज्ञान, मन, वचन, काया, एवं चरित्र आदि नौ प्रकार के आर्य बताए गए हैं। इस दृष्टि से मन, वचन एवं शरीर की वृत्ति को सम्हालना भी आर्यत्व को स्थिर रखने के लिये आवश्यक है । इन्हें काबू में रखने पर ही साधक अपने लक्ष्य की प्राप्ति कर सकता है । सन्त तुलसीदासजी ने शरीर को खेत एवं मन, वचन तथा कर्म को किसान बताते हुए कहा है तुलसी ये तनु खेत है, मन, वच कर्म किसान । पाप पुण्य दोऊ बीज हैं, बवे सो लवे सुजान ।। दोहा सीधी और सरल भाषा में कहा गया है, किन्तु इसके द्वारा शिक्षा बड़ी गम्भीर एवं आत्म-हित को लक्ष्य में रखते हुए दी गई है। तुलसीदासजी का कथन है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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