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________________ २४ अस्नानव्रत धर्मप्रेमी बन्धुओ, माताओ एवं बहनो ! कल से हमारा विषय 'जल्ल-परिषह' को लेकर चल रहा है । यह संवर तत्त्व के सत्तावन भेदों में से अठारहवाँ परिषह है। इस विषय में कल 'श्री उत्तराध्ययन सूत्र' की छत्तीसवीं गाथा कही गई थी और आज सैंतीसवीं गाथा को लेकर अपने विचार आपके सामने रखा रहा हूँ । गाथा इस प्रकार है वेएज्ज निज्जरापेही, आरियं धम्ममणुत्तरं । जाव सरीरभेओत्ति, जल्लं काएण धारए । -अध्ययन २, गा. ३७ अर्थात्-कर्मों की निर्जरा का इच्छुक साधु मल परिषह को शांतिपूर्वक भोगे और जब उसने आर्य धर्म का पूर्ण रूप से अनुसरण किया है तो जब तक शरीर का भेद यानी इसकी स्थिति है, तब तक प्रस्वेद जन्य मल को समभाव पूर्वक धारण किय रहे। इस गाथा में बड़ा गम्भीर रहस्य छिपा हुआ है और वह इन शब्दों में है'आरियं धम्मणुत्तरं ।' अर्थात् जब साधु ने श्रुत और चारित्र रूप प्रधान आर्य धर्म का अनुसरण किया है तो उसे सम्यक् ज्ञान पूर्वक सकाम निर्जरा करनी चाहिए। अगर उसमें सम्यक ज्ञान का अभाव है तो वह भले ही अपने शरीर को रज और मल से लिप्त रहने दे तथा वर्षों तक पंचाग्नि तप करे किन्तु आत्मा को संसार-मुक्त नहीं कर सकता। क्योंकि वह अज्ञान तप कहलाता है और ऐसे तप को जैनागम महत्त्व नहीं देते। शास्त्रों की तो स्पष्ट घोषणा है जं अन्नाणी कम्म खवेइ, बहुयाहिं वास कोडिहिं । तं नाणी तिहि गुत्तो, खवेई उसासमित्तेणं ॥ -भग० ३।१।११।९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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