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________________ २५६ आनन्द प्रवचन | छठा भाग जाट की बुद्धिमानी कहा जाता है कि एक जाट के पास काफी जमीन थी और उसमें उसने ककड़ी और तरबूज बो रखे थे । उस वर्ष पानी अच्छा बरसा था तथा ककड़ियाँ और तरबूज भारी संख्या में हुए थे। जाट बड़ी सावधानी से अपने खेत की रक्षा करता था, क्योंकि उसके जीवन-यापन का तरबूज आदि की बिक्री से आया हुआ द्रव्य ही साधन था। एक दिन वह जाट किसी काम से बाहर गया था, किन्तु जब लौटा तो देखता है कि एक ब्राह्मण, एक राजपूत और एक नाई बड़े आनन्द से ककड़ियाँ और तरबूज खा रहे हैं। वे लोग समीप के मार्ग से गुजर रहे थे और जब ककड़ियाँ और तरबूजों से लदा खेत देखा तो उनकी इच्छा उन्हें खाने की हो गई। तीनों ने यह भी देखा था कि खेत का मालिक वहाँ नहीं है और खेत सूना है। बस, फिर क्या था ? वे मौज से खाने में लग गये। पर संयोग वश जाट उसी समय वहाँ आ गया। जब उसने देखा कि वे तीन राहगीर मानों अपने बाप का खेत समझ कर निश्चिततापूर्वक ककड़ी-तरबूज खा रहे हैं, तो उसे बड़ा क्रोध आया। उसकी एक दम इच्छा हो गई कि वह उन्हें मार-मारकर खेत से निकाल दे। किन्तु जाट अकेला था और खाने वाले तीन । ऐसी स्थिति में उन्हें पीटने की बजाय वह स्वयं ही अधिक पिट जाता। पर इस समस्या को सुलझाना ही था अतः कुछ क्षण वह विचार करता रहा। अन्त में उसकी बुद्धि काम कर गई और उसने एक योजना बनाई । उसके अनुसार वह उन तीनों के पास आया । वेश-भूषा आदि से जाट समझ गया था कि इनमें एक ब्राह्मण है, दूसरा राजपूत और तीसरा नाई। ___ बड़े कौशलपूर्वक नम्रता सहित वह पहले ब्राह्मण के पास गया और उसके चरण छुए। यह देखकर ब्राह्मण देवता फूलकर कुप्पा हो गये। उसके बाद जाट राजपूत के पास गया और उसे मुस्कराते हुए हाथ जोड़े। राजपूत भी अपने स्वाभाविक गर्व से तन गया। अब नाई की बारी आई। पर जाट उसके पास जाकर बोला __ "ब्राह्मण, देवस्वरूप होते हैं अतः उन्होंने तरबूज खाये तो कुछ नहीं, और दूसरे ठाकुर साहब हैं, अतः मेरे मालिक हैं । ये भी इच्छानुसार जो चाहें खा सकते हैं। किन्तु तू तो जाति का नाई और कमीना है। फिर तूने मेरे तरबूज क्यों खाये ?" जाट के ऐसे वचन सुनकर तथा अपनी की गई प्रशंसा से खुश होकर ब्राह्मण और राजपूत नाई के पक्ष में कुछ नहीं बोले तथा आनन्द से तरबूज खाते रहे । पर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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