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________________ २५० आनन्द प्रवचन | छठा भाग - तो बन्धुओ, जहाँ इस प्रकार का असह्य शीत और भयंकर ताप हो वहां की वेदना का वर्णन क्या शब्दों में किया जा सकता है ? नहीं, पर नरकों में ऐसे ही शीत एवं ताप होते हैं, जिनके कारण जीव असह्य दुःख पाते हैं । फिर केवल इतने ही दुःख वहाँ नहीं, आगे भी बताते हैं कि नारकीय प्राणी सतत दुखी एवं पीड़ायुक्त रहने के कारण आपस में बुरी तरह से लड़ा करते हैं, एक दूसरे के शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर डालते हैं । किन्तु एक बार ही मर जाने का कष्ट वहाँ नहीं है क्योंकि नारकीयों के शरीर जिस प्रकार पारा बिखर कर पुनः जुड़ जाता है, उसी प्रकार बार-बार बिखरते हैं और पुनः जुड़कर फिर उसी प्रकार के कष्ट पाते हैं। ऊपर से संक्लिष्ट परिणाम वाले असुर पहले, दूसरे और तीसरे नरक तक जाकर नारकीय जीवों को अपने-अपने पुराने वैरों को बताकर आपस में लड़ाते हैं तथा अपना मनोरंजन करते हैं । ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार प्राचीन राजा एवं नवाब आदि हाथियों को, भैसों को, बकरों को, सांड़ों को तथा ऐसे ही अन्य पशुओं को मदिरा आदि पिलाकर उत्तेजित करते थे तथा उन्हें आपस में इस प्रकार लड़ाते थे कि जब तक उनमें से एक मर नहीं जाता, उनकी लड़ाई समाप्त नहीं होती थी । ऐसी लड़ाइयों को लोग बहुत बड़ी संख्या में इकट्ठे होकर बड़ी रुचि के साथ देखते थे तथा आनन्दित होते थे । यही कार्य असुर नारकीयों के साथ करते हैं। महान् दुःख नरक में यह भी है कि उन निरीह जीवों को प्यास इतनी लगती है, मानो समुद्र का सारा पानी पी जाएँ और भूख इतनी सताती है कि तीनों लोकों का अनाज खा लें, किन्तु न एक बूंद पानी पीने को मिलता है और न ही अन्न का एक भी कण खाने को। ऐसा घोर कष्ट एवं भयंकर वेदनाएँ नरक में जीव को भोगनी पड़ती हैं। यही विचार संत-मुनिराज करते हैं कि हमारी आत्मा ने तो न जाने कितनी बार नरक के अवर्णनीय दुःख भोगे हैं, फिर उनके मुकाबले में इस पृथ्वी पर आने वाले परिषह किस गिनती में हैं ? वस्तुतः व्यक्ति अगर नरक के दुःखों से अपने जीवन में आने वाले परिषहों की तुलना करता है, या अपने से अधिक दुखी व्यक्तियों को देखता है तो उसे अपने दुःख कम महसूस होते हैं । इसलिए साधक को परिषहों के सामने आने पर यही विचार करना चाहिए कि-'हे आत्मन् ! तूने नरक गति के भयंकर कष्ट अनेक बार सहे हैं, और अनेक बार तिर्यञ्च गति में भी नाना योनियों में जाकर असह्य वेदना भोगकर फिर यहाँ मनुष्य की गति में आया है, ऐसी स्थिति में तेरे समक्ष आने वाले कष्ट क्या उनसे अधिक हैं ? नहीं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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