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________________ तप की ज्योति २४५ एक सुन्दर श्लोक में कहा गया है विजेतव्या लंका चरणतरणीयो जलनिधिविपक्षो लङ्केशो रणभुवि सहायाश्च कपयः । तथाप्येको रामः सकलमवधीद् राक्षसकुलं, क्रियासिद्धिः सत्त्वे वसति महतां नोपकरणे । -सुभाषित रत्न भाण्डागार, कहा है-लंका पर विजय पानी थी, समुद्र में पैरों से तैरना था, रावण जैसा शत्रु था, रण भूमि के सहायक केवल बानर थे। इतने पर भी अकेले राम ने राक्षस कुल को नष्ट कर दिया। क्योंकि महापुरुषों के पराक्रम एवं आत्मविश्वास में ही उनकी कार्यसिद्धि होती है, सहायक उपकरणों में नहीं। आशय यही है कि जब मानव अपने विराट उद्देश्य की पूर्ति में मन, वचन एवं शरीर, इन तीनों योगों को दृढ़ता से लगा देता है तो अन्य समस्त साधन स्वयं ही उसके सहायक बन जाते हैं । पर खेद की बात यही है कि वह अपने जीवन के इस महान उद्देश्य की परवाह भी नहीं करता और दुनियादारी के व्यापार में लगा रह कर परलोक की चिन्ता से विमुख बना रहता है । उसे केवल भौतिक व्यापार एवं भौतिक सुख की ही फिक्र रहती है। ऐसे व्यक्तियों को उद्बोधन देते हुए किसी फारसी भाषा के कवि ने कहा है ऐ गिरफ्तारे पाए बन्दे अयाल । दिगर आजादगी मबन्द ख्याल । गमे फरजजन्दो नानो जामाओ कूत । अर्थात हे मनुष्य ! तू धन-सम्पत्ति, मकान, जमीन, भोग-विलास के साधन एव पत्नी, पुत्र तथा परिवार आदि के मोह में आसक्त रहकर किसी प्रकार भी मुक्त नहीं हो सकता, क्योंकि इन पदार्थों की चिन्ता स्वर्ग और मोक्ष की चिन्ता में बाधक होती है। वस्तुतः जो व्यक्ति सांसारिक उपलब्धियों के लिये बावला रहता है तथा अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिये ही सम्पूर्ण क्रियाएँ करता है वह आध्यात्मिक क्षेत्र में सदा कोरा बना रहता है । ऐसे व्यक्तियों में और पशुओं में आकृति भेद के अलावा और कोई अन्तर दिखाई नहीं देता । ऐसे व्यक्ति अपने मनुष्य जीवन के सच्चे उद्देश्य को भूल जाते हैं या समझने की कोशिश ही नहीं करते । वे भौतिक और जड़ द्रव्य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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