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________________ पास हासिल कर शिवपुर की २३५ अर्थात्-हरिण, हाथी, पतंग, भ्रमर एवं मछली, एक-एक इन्द्रिय के वश में होकर ही प्राणनाश को प्राप्त होते हैं । हरिण श्रोत्रेन्द्रिय के विषय संगीत का रसिक है। अतः गीत सुनकर इतना मुग्ध हो जाता है कि अपने पकड़ने वाले का ध्यान भी नहीं रख पाता और कैद कर लिया जाता है। __हाथी को पकड़ने वाले व्यक्ति भी एक बड़ा भारी गड्ढा खोदकर मिट्टी आदि किसी पदार्थ से हथिनी का आकार बनाकर उसे गढ़े में उतार देते हैं। और हाथी जब आता है तो स्पर्शेन्द्रिय के वश में होकर हथिनी को पाने के लिए उसमें गिरकर पकड़ लिया जाता है। तीसरा जन्तु पतंग है । इसके विषय में आप सभी जानते हैं कि पतंग चक्षुइन्द्रिय के आकर्षण में पड़कर दीपक पर तब तक मंडराता रहता है, जब तक कि जलकर भस्म नहीं हो जाता । अब आता है भंग । भृग यानी भ्रमर, जो कि लकड़ी में भी छेद कर देने की शक्ति रखता है, किन्तु घ्राणेन्द्रिय पर काबू न रख पाने के कारण पुष्प में कैद होकर समाप्त हो जाता है। ___ इसी प्रकार मछली रसनेन्द्रिय के लालच में पड़कर प्राण गँवाती है । मच्छीमार काँटे में आटा लगाकर उसे जल में डालते हैं और उस आटे का रसास्वादन करने के लिए मछली उसे मुंह में ले लेती है। परिणाम यह होता है कि काँटा उसके गले में फंस जाता है और वह काँटे समेत बाहर निकाल ली जाती है। उसके पश्चात् उसका क्या हाल होता है यह आप सब भली भाँति जानते हैं। ____तो ये पाँचों प्राणी एक-एक इन्द्रिय के वशीभूत होकर भी जब इतनी हानि उठाते हैं तो फिर वह मनुष्य जो पाँचों इन्द्रियों के प्रबल आकर्षण में पड़कर इनके विषयों को भोगते हैं, उनकी आत्मा आगे जाकर कितनी वेदना भोगेगी इसकी कल्पना किस प्रकार की जा सकती है ? अर्थात् नहीं की जा सकती । आत्मा को अनन्त काल तक कष्ट उठाना पड़ता है। इसलिए बन्धुओ, अगर हमें अपना जीवन सफल बनाना है तथा अपनी आत्मा को भविष्य के अनन्त कष्टों से बचाते हुए उसे अपने शुद्ध स्वरूप में लाना है तो मन एवं इन्द्रियों पर संयम रखने का प्रयत्न करना पड़ेगा। साथ ही सद्गुणों का संचय, साहस एवं उद्यम को अपने जीवन में लाना पड़ेगा। कायर और उद्यम शून्य व्यक्ति कभी अपने लक्ष्य की प्राप्ति नहीं कर सकते और ऐसी स्थिति में उनका मानव जन्म पाना न पाने के समान हो जाता है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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