SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 241
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पास हासिल कर शिवपुर का २२ कहने का अभिप्राय यही है कि मनुष्य चाहे साधु बन जाय या गृहस्थावस्था में रहे, वह अपनी प्रत्येक क्रिया धर्ममय बनाये रखे । मैं यह नहीं कहता कि आप सब साधु बन जायँ । मैं तो केवल यह कहता हूँ कि आप व्यापारी हैं, व्यापार करना आपके लिए आवश्यक भी है। पर आपको इतना अवश्य करना चाहिए कि झूठ बोल कर, बेईमानी करके अथवा अनीति से अर्थ का उपार्जन न करें । ऐसी बात तो है नहीं कि ऐसा किये बिना आपका व्यापार चल ही नहीं सकता । अरे भाई ! आपको जिस वस्तु में दो पैसे का नफा लेना है तो स्पष्ट कहो कि हमें दो पैसे का ही लाभ है अतः इससे कम नहीं ले सकता । पर दो पैंसे का नफा कहकर आप ग्राहक से चार पैसे क्यों वसूल करते हैं ? यह तो झूठ बोलकर दो पैसे अधिक लेना हुआ । अगर आप झूठ न बोलें और दो पैसे ही एक पदार्थ के नफे के रूप में लें तो क्या होगा ? यही तो कि आपको नफा कुछ कम होगा । सत्य बोलकर आप घाटे में तो नहीं रहेंगे ? तो सच बोलने से भले ही आपकी आमदनी कुछ कम हो जाय, पर आपकी आत्मा तो शान्ति का अनुभव करेगी । इसके अलावा अनीति से अधिकाधिक धन कमाकर भी आप क्या करेंगे ? आप खायेंगे उतना ही जितना पेट में समायेगा और पहनेंगे भी इतना ही जितने से लज्जा ढक जाय । उससे अधिक जो पैसा बचेगा वह बैंकों में पड़ा रहेगा, या आभूषणों के रूप में सेठानियों की पेटियों में रहेगा पर उससे आपको क्या लाभ होगा ? जिस दिन इस संसार से विदा होंगे, सब यहीं वैसा ही पड़ा रह जायगा । तो बंधुओ ! सत्य एवं नीति से थोड़ा कमाकर भी आप आनन्द से पेट भर सकते हैं तथा अपनी जरूरतें पूरी कर सकते हैं । पेटियाँ भरने से कोई लाभ नहीं है । वे तो यहीं भरी रह जायेंगी और आत्मा उस अनीति एवं असत्य के कारण कर्मों का भार लाद चलेगी । इससे अच्छा तो यही है कि अन्याय, असत्य और अनीति का त्याग करके यहाँ भी हम हलके रहें और परलोक में जाने वाली आत्मा भी हलकी रहकर ऊँचाई की ओर बढ़े । धर्ममय व्यापार करके थोड़ा नफा होने पर व्यक्ति को कोई हानि नहीं है, किन्तु अधर्म पूर्वक अधिक धन संग्रह करने से बड़ी हानि होती है । मैंने अभी आपको बताया है कि व्यापार करने के लिए अधर्म का सहारा लेना तनिक भी आवश्यक नहीं है । अगर व्यक्ति चाहे तो बड़े-बड़े साम्राज्यों का संचालन भी धर्मपूर्वक कर सकता है। एक उदाहरण से आप इस बात को भली-भाँति समझ लेंगे । पापोपार्जित धन नहीं चाहिए कहा जाता है कि एक बार महर्षि अगस्त्य की पत्नी लोपामुद्रा ने अपने पति से कहा - "मुझे कुछ गहने बनवा दीजिये ।” ऋषि अपनी पत्नी की यह बात सुनकर चकित रह गये, क्योंकि अभी तक कभी भी उसने आभूषणों की इच्छा प्रगट नहीं की थी । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy