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________________ २१८ आनन्द प्रवचन | छठा भाग किन्तु एक बार मेरी आँखों में घोर वेदना उठी । उस असह्य वेदना से केवल मेरी आँखें ही नहीं, वरन् मस्तक, हृदय, कमर एवं समस्त शरीर पीड़ित हो गया। मेरे पिता ने अनेक वैद्यों और हकीमों को इकट्ठा किया तथा उन सबने चतुष्पाद चिकित्सा के द्वारा मेरे कष्ट को मिटाने का प्रयत्न किया। पानी की तरह पैसा बहाया गया पर कोई लाभ नहीं हुआ। माता-पिता, भाई, पत्नी एवं सभी स्वजनपरिजन विकल होते थे तथा मेरी घोर पीड़ा से दुखित होकर आँसू बहाते थे।" ___ "किन्तु महाराज ! मेरी बीमारी को मिटाने में कोई भी समर्थ नहीं हो सका, न उस समय स्वजन सम्बन्धी कुछ कर सके, न वैद्य-हकीम अपनी दवा से मुझे लाभ पहुँचा सके और न मेरे पिता की अपार ऋद्धि ही मेरी बीमारी में काम आई । यह स्थिति देखकर मुझे विश्वास हो गया कि मैं अनाथ हूँ। और जब यह विश्वास हो गया तो एक दिन मैंने संकल्प किया कि अगर इस वेदना से मुक्त हो जाऊँगा तो अनगार बनकर ऐसा प्रयत्न करूँगा कि मेरी आत्मा को सदा के लिए रोग-शोक एवं जन्म-मरण से मुक्ति मिल जाय । बस यह विचार और दृढ़ संकल्प करते ही मेरी घोर वेदना अपने आप शांत हो गई और मैंने अविलम्ब संन्यास ले लिया। अब आप ही बताइये कि आप जो कि अपने आपको लाखों व्यक्तियों का नाथ समझते हैं, क्या किसी भी प्राणी की शारीरिक वेदना को मिटाने में समर्थ हैं, क्या आप किसी को मरने से बचा सकते हैं ? नहीं, ऐसी स्थिति में आप किस प्रकार स्वयं को किसी का नाथ कह सकते हैं ? मैंने इस बात को भली-भाँति समझकर ही संयम का यह रूखा मार्ग अपनाया है।" बन्धुओ, ! आप अनाथी मुनि एवं राजा श्रेणिक के इस वार्तालाप को सुनकर समझ गए होंगे कि साधक अथवा मुनि क्यों रूक्ष वृत्ति अपना लेते हैं ? उत्तराध्ययन सूत्र की जो गाथा मैंने आपको प्रारम्भ में सुनाई है, उसमें 'लूहस्स' शब्द आया है। 'लूहस्स' का अर्थ है रुखी वृत्ति वाला। साधु ऐसी वृत्ति वाले होने के कारण ही संसार में रहकर वस्त्र पहनते हुए, आहार ग्रहण करते हुए तथा अन्य सब क्रियाएँ करते हुए भी मिट्टी का सूखा गोला जिस प्रकार दीवार में नहीं चिपकता, उसी प्रकार किसी भी सांसारिक पदार्थ में आसक्त नहीं होते। और अनासक्ति पूर्ण रूक्ष वृत्ति को धारण करने पर ही सम्पूर्ण परिषहों पर विजय प्राप्त करते हैं । संसार में रहकर भी वे संसार से उदासीन रहते हैं । जो मिलता है पहन लेते हैं और जो मिलता है खा लेते हैं। कभी ऐसा नहीं होता कि भिक्षा में पकवान आ गये तो वे सराहना करते हुए उन्हें बड़े चाव से खाएँ और नीरस वस्तुओं के आ जाने पर दुखी होते हुए या कुढ़ते हुए उन्हें ग्रहण करें । वे जानते हैं कि खाद्य पदार्थ जब तक जीभ पर रहते हैं, तभी तक उनका स्वाद रहता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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