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________________ कहो क्यारे पछी तरशो? कहते हैं-यह जिंदगी संसार के समस्त प्राणियों पर प्रेम भाव रखने के लिए और धर्म-कार्य करने के लिये प्राप्त हुई है। अतः इस मार्ग पर मुमुक्षु को सदा अपने कदम आगे बढ़ाते जाना चाहिये। यहाँ तक कि कभी धर्म के लिए बलिदान होने का अवसर आए तो भी बिना किसी हिचकिचाहट के अपना मस्तक न्यौछावर कर देना चाहिए। अभी-अभी मनोज जी ने आपके समक्ष बड़े सुन्दर विचार रखे हैं । उन्होंने कहा है-"हम लोगों का कर्तव्य है कि हम समाज की उन्नति के लिए तो प्रयत्न करें ही, साथ ही बाल-मुनियों और जो भी इच्छुक हों. उन संतों को सुशिक्षित बनाएं ताकि वे हमारी अगली पीढ़ी का मार्ग-दर्शन कर सकें तथा अधिक से अधिक जैनधर्म की छाप लोगों पर डालें।" आप लोगों के ये विचार प्रशंसनीय हैं। संतों के लिए संघ माता-पिता के समान होता है अतः जिस प्रकार माता-पिता अपनी संतान का भविष्य उज्ज्वल बनाने का प्रयत्न करते हैं उसी प्रकार संघ साधु-साध्वियों की शिक्षा-दीक्षा का भी प्रयत्न करे, यह उसका कर्तव्य है। आज साधु समाज में जो भी विद्वान संत हुए हैं, वे विभिन्न संघों के सहयोग से ही बने हैं। पूज्य श्री गणेशीलाल जी महाराज एवं पूज्य श्री घासीलाल जी महाराज आदि सभी संतों का शिक्षण संघ के द्वारा हुआ है। मैं स्वयं भी जब कम उम्र का था उस समय सिद्धान्त कौमुदी में विसर्ग संधि का अध्ययन करते समय फक्किका याद नहीं कर पाता था तब शिक्षा के नाम से घबराकर उसे छोड़ देने का निश्चय कर चुका था। किन्तु उस समय आप लोगों में से ही अनुभवी एवं हिताकांक्षी श्रावकों ने मुझे समझाया और घोड़नदी वालों ने धैर्य दिलाकर पुनः उस मार्ग पर स्थिर किया। उसी का परिणाम है कि आज मैं दो अक्षर आपके सामने बोल रहा हूँ। मेरे कहने का अभिप्राय यही है कि साधु तो पैसा-धेला रखते नहीं अतः पढ़नेलिखने के लिए पंडितों की व्यवस्था करना आपका कर्तव्य है और वह कर्तव्य आप पूरा करते आ रहे हैं। अतः अनेक विद्वान एवं पंडित संत हमारे यहाँ जैनधर्म की ज्योति जगह-जगह जलाते हुए धर्म-प्रचार करते रहे हैं। संतों के द्वारा ही अन्य धर्मावलम्बियों पर जैनधर्म का प्रभाव पड़ता है और स्वयं अपने समाज में भी उनके प्रवचन लोगों की सोई हुई आत्मा को जगाने का कार्य करते हैं । ___ तो बंधुओ, मुझे प्रसन्नता है कि आज आप लोगों ने धर्म के मार्ग पर अपने कदम कुछ और आगे बढ़ाये हैं। अर्थात् अनेक तेलों के तप का अनुष्ठान करके कर्मों की निर्जरा करने का प्रयत्न किया है तथा दान देने का संकल्प करके पुण्योपार्जन का कार्य भी किया है। अपने समाज की उन्नति तथा समाज में रहने वाले अभावग्रस्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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