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________________ १८४ आनन्द प्रवचन | छठा भाग अर्थात्-जिस प्रकार जहाज के बिना समुद्र को पार नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार गुरु के मार्ग-दर्शन के बिना संसार-सागर से पार पाना बहुत कठिन है । कहने का अभिप्राय यही है कि समाज में आज जो अव्यवस्था बनी हुई है और अशांति एवं अनुशासनहीनता का साम्राज्य फैला हुआ है, उसका कारण समाज का रोग-पीड़ित होना ही है । अतः आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है कि समाज को रोगमुक्त करने के लिए संगठन रूपी औषधि लेनी चाहिए। इस औषधि को लेने पर ही समाज टिक सकेगा और उसका शरीर निरोग बनेगा। आज समाज के नेता और विचारक सम्मेलन करते हैं, प्रस्ताव पारित किये जाते हैं तथा वाद-विवाद और बहसें होती हैं, किन्तु केवल इतना करने से क्या हो सकता है ? मान लीजिए एक रोगी डॉक्टर के पास जाता है और उन्हें अपने पेट-दर्द के विषय में, बुखार के बारे में या अन्य सभी रोगों के विषय में विस्तारपूर्वक बता देता है । डॉक्टर भी मरीज के समस्त रोगों पर पूर्ण विचार करके अत्युत्तम औषधियाँ लिखकर नुसखा उसे दे देता है । किन्तु मरीज उसे अपने घर ले जाता है और दिन में अनेक बार उस नुसखे को पढ़ता है तथा औषधियों की उत्तमता की सराहना करता है किन्तु क्या ऐसा करने से उसकी बीमारियाँ ठीक हो सकती हैं ? नहीं। रोटी-रोटी के नारे लगाने से पेट नहीं भरता जब तक पेट में अन्न नहीं डाला जाता। इसी प्रकार विचारकों के विचार करने और वाद-विवाद करने से समाज की समस्यायें सुलझ नहीं सकतीं, न ही उसमें व्यवस्था या अनुशासन स्थापित हो सकता है। इसके लिए तो क्रियात्मक कार्य करना पड़ेगा। रोटी-रोटी करने से पेट नहीं भरता और पानी-पानी कहने से प्यास नहीं मिटती, इसी तरह संगठन-संगठन के नारे लगाने से संगठन भी नहीं हो सकता । इसके लिए क्रियात्मक कार्य करना पड़ेगा और तभी समाजरूपी शरीर के सम्पूर्ण अवयव स्वस्थ हो सकेंगे । किन्तु क्या किया जाय ? "माली बिना बाग आ बगड़ी जाय।" गुजराती भाषा के एक भजन में कहा गया है-माली के न होने से बगीचा बिगड़ जाता है । बात सही है। हम जानते हैं और देखते हैं कि अच्छे बगीचों में उनके माली दिन-रात परिश्रम करते हैं । वे नए-नए पौधे लगाते हैं, पुरानों को हटाते है, घास-फूस को साफ करते रहते हैं तथा आवश्यकतानुसार पौधों की काट-छांट भी कैंची के द्वारा करते हैं। इतना श्रम करने पर बगीचा फलता-फूलता है तथा लोगों के आकर्षण एवं मनोरंजन का केन्द्र बनता है । __ समाज भी एक विशाल बगीचा है और इसके सभी सदस्य एक-एक पेड़ के रूप में हैं; किन्तु समाज रूपी इस बगीचे का एक भी पेड़ या पौधा क्या निर्दोष और सुन्दर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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