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________________ १७३ शरीरं व्याधि-मंदिरम् भगवान महावीर का आदेश है कि साधु अपने शरीर में उत्पन्न हुए दुःख को जानकर वेदना से दुखी न होता हुआ दीनता रहित बुद्धि को स्थापन करे तथा महसूस होने वाले दुःख को समतापूर्वक सहन करे। __ अभिप्राय यही है कि साधु को भले ही भयंकर ज्वर हो, कोई भी तीव्र वेदना पहुँचाने वाला घाव, व्रण या सूजन आदि शरीर में हो, वह किसी भी प्रकार का दुःख या विह्वलता का अनुभव न करे और न ही आर्त-ध्यान मन में लाये। संयमशील साधु को चाहिए कि वह रोगजनित वेदना में अपनी बुद्धि को स्थिर और मन को शान्त रखे । वह इस प्रकार का चिन्तन करे कि - इस आत्मा ने कृतकर्मों के कारण अनेक बार शारीरिक एवं मानसिक कष्टों का अनुभव किया है। इस समय भी मुझे जो कष्ट उत्पन्न हो रहा है वह असाता वेदनीय कर्मों के कारण है। कर्मों का भुगतान तो जीव को करना ही पड़ता है। किसी भी उपाय से उससे बचा नहीं जा सकता । इसीलिए अनिवार्य समझकर उनके कारण उत्पन्न रोगादि को समतापूर्वक सहन करना चाहिए । हाय-हाय करने से या रोने-चीखने से बीमारी तो कभी हट नहीं सकती, फिर चिन्ता करने से या आर्तध्यान करने से क्या लाभ है ? संस्कृत साहित्य में शरीर के विषय में कहा जाता है—“शरीरं व्याधिमन्दिरम् ।" यह शरीर अनेक व्याधियों का घर है । ___ हम ग्रन्थों में पढ़ते हैं कि मनुष्य के शरीर पर साढ़े तीन करोड़ रोम होते हैं और प्रत्येक रोम के मूल में पौने दो रोग छिपे रहते हैं। इस प्रकार साढ़े पांच करोड़ से भी अधिक रोग शरीर में रहते हैं । सौ-दोसो या लाख-दो लाख नहीं, करोड़ों रोगों का घर यह शरीर होता है । आप सोचेंगे कि जब इतने रोग इस शरीर में विद्यमान रहते हैं तो फिर ये सदा ही हमें क्यों नहीं सताते ? इसका कारण यह है कि जब तक मानव के पल्ले में पुण्य होता है, रोग भी अपना सिर ऊँचा नहीं करते । किन्तु जब पुण्यवानी में कमी आ जाती है और पापों का उदय होता है तो इनकी बन आती है और तनिक से कारण को निमित बनाकर ये दुःख देने लगते हैं। यथा-ग्रीष्म की धुप चलकर आए, पानी पी लिया तो बीमार पड़ गए। छत पर सोये, सर्दी लगी कि निमोनिया हो गया । गिरी खाकर पानी पी लिया, खांसी हो गई । इसी प्रकार छोटेछोटे निमित्तों को लेकर ही रोग शरीर में घर कर जाते हैं । ऐसी स्थितियों में मुनि को यही सोचना चाहिए कि मेरे पाप कर्म अपना कर्ज वसूल करने आए हैं और मुझे सहर्ष चुकाना चाहिये। यह जीवन तो क्षणभंगुर है ही, किसी भी बहाने से कष्ट होगा, फिर रोगों से घबरा कर अपनी साधना में वाधा डालने से क्या लाभ है ? अगर मै आर्तध्यान करूंगा तो अधिक कर्म मेरी आत्मा को घेरते जाएँगे और संसार बढ़ेगा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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