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________________ अलाभो तं न तज्जए १६७ मुनीम बाहर से आते हुए मिल गये । उन्होंने पूछ लिया-"बेटे ! अच्छी तरह से तो हो ? इस समय कहाँ जा रहे हो?" श्रेष्ठिपुत्र बड़े संकट में पड़ गया। हमेशा तो वह कोई भी बहाना बाहर जाने का बना देता था। पर आज तो वह सच बोलने का नियम लेकर आया था अतः सोचने लगा-"अब कोई बहाना बनाता हूँ तो असत्य का पाप लगता है और सत्य कहूँ कैसे ? मुनीम मेरे पिता के समान हैं, इनसे कैसे कह सकता हूँ कि शराब पीने जा रहा हूँ।" ऐसा सोचते हुए वह कुछ न कहकर पुनः अन्दर चला आया । कुछ समय और व्यतीत हुआ तो उसे ख्याल आया कि मेरे दोस्त पत्ते लिये बैठे होंगे, मेरे बिना दाँव लगायेगा भी कोन ? चलूँ अब वहीं सही। यह विचारकर वह पुनः उठा और घर से बाहर निकला। पर बाहर निकलते-निकलते उसके पिताजी दुकान से आते हुए मिल गये। सहज भाव से उन्होंने पूछ लिया "पुत्र किधर जा रहे हो ?" लड़के की फिर मुश्किल हो गई । गलत कारण बताये तो झूठ और सच कहे तो पिता क्या सोचेंगे कि जुआ खेलने जा रहा है। वह फिर मन मारकर लौट आया। पर कुछ रात बीतने पर फिर उसे मन बहलाने के लिए वेश्या के यहाँ जाने का मन हुआ । वह भगवान का नाम लेकर फिर उठा और कमरे से बाहर जाने लगा। पर आश्चर्यजनक संयोग सब उसी दिन घटने थे। वह कमरे से बाहर निकल भी नहीं पाया था कि उसकी माँ गरम दूध का गिलास लेकर सामने आ गई और कह बैठी—"बेटा, दूध पीलो और सो जाओ ! अब इतनी रात गये कहाँ जा रहे हो ? बेचारा पुत्र भारी मुसीबत में पड़ गया। वह माँ से क्या कहता कि कहाँ जा रहा हूँ ? बहुत ही झु झलाते हुए उसने दूध लिया और बोला- "कहीं नहीं जाता, दूध पीकर सोता हूँ।" इस प्रकार सत्य बोलने का नियम लेकर वह उस दिन कहीं नहीं जा पाया । और फिर तो रोज-रोज ही ऐसा होने लगा। परिवार काफी बड़ा था और ऊपर से मुनीम, गुमास्ते तथा नौकर-चाकर भी रहते थे। कोई भी उसे बाहर जाते देखकर पूछ ही लेता कि कहाँ जा रहे हो ? वह उत्तर दे नहीं सकता था, क्योंकि पूछने वाला उसके दुर्व्यसन के बारे में जानकर माता-पिता से शिकायत कर सकता था । पर धीरे-धीरे उसकी बुरी आदतें स्वयं ही छुटने लगीं। जब कुछ दिन तक वह जुआ, शराब या मुजरे में नहीं जा पाया तो फिर उसे स्वयं भी उन सबसे नफरत हो गई। यह सब सत्य बोलने का नियम लेने का ही परिणाम था। स्पष्ट है कि एक सत्य ही जीवन के अनेक दुर्गुणों को नष्ट कर देता है । इसीलिए श्लोक में कहा गया Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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