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________________ कहो क्यारे पछी तरशो? भिक्षु की आवाज सुनकर उस दयनीय एवं यन्त्रणामय स्थिति में भी वासवदत्ता बुरी तरह चौंक पड़ी और उससे परे हटने की कोशिश करती हुई वेदनापूर्ण स्वर से बोली __ "उपगुप्त ! तुम अब आए हो। जबकि मेरा धन, यौवन एवं सौन्दर्य आदि सभी कुछ नष्ट हो गया। अब क्या है मेरे पास ? केवल जानलेवा और भयानक रोग से ग्रस्त शरीर और इससे फूटती असह्य दुर्गन्ध । मुझे देखकर तुम्हें अपार ग्लानि हो रही होगी भिक्षु ! जाओ यहाँ से, चले जाओ ! मुझे इसी प्रकार एकाकी मरना है। वह समय गया जबकि मेरी एक झलक प्राप्त करने के लिए लोग मुट्ठियाँ भर-भरकर मोहरें लुटाने के लिए तैयार रहते थे। आज वे सब भंवरों के समान उड़ गये हैं, कोई भी इस जिन्दा लाश के पास नहीं फटकता, इसे एक नजर देखना भी पसन्द नहीं करता । तुम भी जाओ उपगुप्त, यहाँ से भाग जाओ ! तुम्हें तो मैंने दिया ही क्या है, क्यों तुमसे कुछ अपेक्षा रखू ? मेरे घावों की दुर्गन्ध से तुम्हारी नाक सड़ रही होगी और मेरी इस घिनौनी शकल को देखकर तुम्हारी आँखें तुमसे विद्रोह कर रही होंगी । इसलिये तुम अविलम्ब यहाँ से चले जाओ।" "ऐसा नहीं हो सकता वासवदत्ता ! तुमने एक दिन मुझे बुलाया था पर उस समय अपनी आवश्यकता न समझकर मैं चला गया था। आज तुम्हें मेरी जरूरत है और मुझे खुशी है कि मैं समय पर आ गया हूँ।" यह कहते हुए भिक्षु उपगुप्त बराबर उसके घावों को धोते रहे, उन पर शहर से लाकर दवा का लेप किया और वस्त्र-शुद्धता आदि अन्य सभी आवश्यक सेवाओं में जुट गये। तो बंधुओ ! मैं आपको यह बता रहा था कि सेवा-कार्य बड़ा दुस्तर होता है और कोई साधारण व्यक्ति इसे सम्पन्न नहीं कर सकता । आप श्रीमन्त हैं, दान दे सकते हैं पर सेवा जिसे वैयाव्रत तप कहते हैं, वह आपके बस का रोग नहीं है । पर यह भी ध्यान रखें कि दान से जहाँ केवल पुण्य की उपलब्धि होती है वहाँ तप से कर्मों की निर्जरा होती है। तो वे संत महापुरुष जो ग्लानि परिषह को जीत लेते हैं, और वे सद् श्रावक जो रात-दिन धन कमाने की चिन्ता में बावले नहीं रहते, वे ही निराकुल स्नेह एवं करुणा के भाव से सेवा कर सकते हैं। तो हमारी मूल बात यह चल रही थी कि समाज और संघ में उसके प्रत्येक सदस्य को समान महत्त्व मिलना चाहिए। आपको विचार करना चाहिए कि अगर किसी व्यक्ति में एक गुण हो सकता है तो अन्य व्यक्तियों में दूसरे गुण भी छिपे रह सकते हैं। एक दान दे सकता है तो दूसरा तपस्या कर सकता है, सेवा कर सकता है या समाज को किसी भी अन्य प्रकार का सहयोग प्रदान कर सकता है। इसलिए Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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