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________________ ११८ आनन्द प्रवचन | छठा भाग 1 रहेगा, उसे ससार की वस्तुओं में सुख और दुःख का अनुभव होगा । किन्तु इस नींद के उड़ते ही उसे समझ में आ जाएगा कि संसार की वस्तुओं से प्राप्त होने वाले सुख और दुःख क्षणिक तथा स्वप्नवत् हैं । सच्चे श्रावक और साधु जब अपने व्रतों को ग्रहण कर लेते हैं और उनमें गहराई तक उतर कर रम जाते हैं तो उन्हें समझ में आ जाता है कि संसार कैसा है और इसमें मिलने वाले सुख तथा दुःख किस प्रकार के हैं । वस्तु-स्वरूप का बोध हो जाने पर बाकी सब कुछ उन्हें निस्सार लगने लगता है । और ऐसा होने पर ही व्यक्ति आश्रव को रोककर संवर मार्ग में प्रवेश करता है | जिस साधक को आश्रव से भय और संवर में रुचि हो जाती है वह पापों से भयभीत होता हुआ कभी नवीन कर्मों को बँधने नहीं देता । इसके लिए चाहे उसे कोई कष्ट पहुँचाये, मारे-पीटे अथवा मरणांतक दुःख ही क्यों न दे । सच्चा साधक कभी मृत्यु से भयभीत नहीं होता । वह भली-भाँति जानता है कि यह शरीर तो एक दिन नष्ट होना ही हैं, फिर इसके मोह में पड़कर क्रोध, कषाय, ईर्ष्या, द्वेष अथवा बदले की भावना से नये कर्मों का बंधन क्यों किया जाय ? क्या इस शरीर को परिषह प्रदान करने वाले प्राणियों से बचा लिया जाएगा तो फिर यह नष्ट नहीं होगा ? होगा, क्योंकि काल तो निश्चय ही एक दिन इसे समाप्त कर देगा, चाहे व्यक्ति चतुरंगिणी सेना को अपने पहरे पर नियुक्त कर दे, धन्वन्तरि वैद्य के सिद्ध रसायन सतत् खाता रहे अथवा तंत्र-मंत्र जानने वालों की कतार ही अपने सन्मुख क्यों न सदा उपस्थित रखे । पूज्यपाद श्री अमी ऋषि जी म० ने अपने एक पद्य में कहा हैअन्त करे सबही जग को पै, कृतांत पै तो किनकी न चली। नर्क पशु सुर मानव वृन्द, मरे तन धूलि में जाय मिली ॥ मन्त्र रसायन आदि उपाय, किये नहि काल की चोट टली । कहत अमीरिख सिद्ध बिना, सबके संग डोलत काल बली || पद्य का अर्थ सरल है, आप समझ गये होंगे कि यमराज पर किसी का वश नहीं चलता । वह समय पाते ही प्रत्येक प्राणी को इस लोक से ले जाता है | चाहे जीव नर्कगति में हो, तिर्यंचगति में हो, मनुष्यगति में हो और चाहे स्वर्ग में देवता ही क्यों न हो, प्रत्येक का अन्त काल करता है । कवि का कहना है कि संसार के प्रत्येक प्राणी के साथ काल छाया के समान लगा रहता है और मन्त्र, तन्त्र, औषधि एवं सुरक्षा के लाख उपाय करने पर भी उसे नहीं छोड़ता । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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