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________________ आगलो अगन होवे, आप होजे पाणी ८६ अगाध स्नेह नष्ट नहीं हुआ था। उसने कुछ समय तक गम्भीरता से चिन्तन किया, तत्पश्चात् उसी समय दो पालकियाँ मंगवाईं और एक में दासियों की सहायता से पति को उठाकर सुलाया तथा दूसरी में स्वयं बैठकर अपने पिता के नगर को चल दी। उसका पीहर दूर नहीं था, रात्रि के पिछले प्रहर तक वह वहाँ पहुँच गई । बड़ी सावधानी से उसने पति को महल में पहुँचवाया तथा पति के समीप बैठकर उनके जागने की प्रतीक्षा करती रही। ___ मानसिंह शराब की खुमारी में पड़ा रहा किन्तु प्रातःकाल होते-होते उसे होश आया और उसने आँखें खोलीं । आँख खुलते ही जब उसने चारों ओर अपनी निगाह डाली तो सभी कुछ बदला-बदला पाया । उसने देखा कि जिस शयनकक्ष में वह रात्रि को आया था, वह नहीं था और किसी दूसरे ही भवन में दूसरी शैय्या पर वह लेटा हुआ था। रानी भी समीप ही बैठी थी और उसे देखते ही वह पुनः क्रोध से बोल उठा--- "मैं कहाँ पर हूँ और कौन मुझे इस नये स्थान पर लाया है ?" रानी ने अपने धड़कते हुए हृदय को संभाला और मुस्कराते हुए शांतिपूर्वक उत्तर दिया "महाराज ! आप इस समय अपनी ससुराल में हैं और मैं ही आपकी आज्ञानुसार आपको यहाँ लाई हूँ।" राजा पुनः गरजे-“मैंने ऐसी आज्ञा तुम्हें कब दी ?" रानी बोली- "आपने रात को ही कहा था कि अपनी मनपसन्द की केवल एक वस्तु लेकर मेरे नगर से निकल जाओ । बस, मेरे मनपसन्द की वस्तु आप ही थे अतः आपको लेकर मैं रातोंरात आपके राज्य से चलकर यहाँ आ गई हूँ। इस प्रकार मैंने आपकी आज्ञा का अक्षरशः पालन किया है।" राजा मानसिंह का क्रोध रानी के ऐसे वचन सुनते ही काफूर हो गया और उसने हँसकर अपने शब्द वापिस लेते हुए कहा-"रानी ! मैं तुम्हारे समक्ष शर्मिन्दा हूँ और अपने देश-निकाले की बात को इसी क्षण वापिस लेता हूँ। चलो, अब हम दोनों तुम्हारे पिताजी की कुशल-क्षेम पूछने चलते हैं।" बन्धुओ ! पतिव्रता और विवेकवान नारियाँ ऐसी ही होती हैं । राजा मानसिंह की मंझली रानी ने अपने पति की आज्ञा का पालन भी किया और अपनी उत्तम सूझ-बूझ से अपने ऊपर आये हुए संकट के बादलों को सहज ही छिन्न-भिन्न कर दिया। ऐसा वे ही नारियाँ कर सकती हैं जो अपने पति पर पूर्ण स्नेह रखती हैं तथा उनकी प्रत्येक आज्ञा को शिरोधार्य करने की क्षमता रखती हैं । इसीलिये कवि ने सर्वप्रथम 'क' अक्षर को लेकर नारी जाति को कंत की, अर्थात् पति की आज्ञा का पालन करने की सुन्दर सीख दी है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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