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________________ आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग पद्य में स्पष्ट कहा गया है कि शरीर आत्मा दोनों भिन्न हैं और वे कदापि एक नहीं हो सकते । आत्मा अथवा चेतन पूर्णतया विशुद्ध, सिद्ध, बुद्ध, अरूपी, निरञ्जन एवं अव्याबाध सुखों का सागर है, शाश्वत है । किन्तु यह शरीर सात धातुओं के संयोग से उत्पन्न हुआ पिंड और नश्वर है, जैसा कि हम सदा देखते हैं । ७२ प्रतिदिन किसी न किसी के लिये कहा जाता है कि 'अमुक व्यक्ति मर गया ।' व्यक्ति मर गया से तात्पर्य उसके शरीर के नाश हो जाने से है । आत्मा से नहीं । आत्मा अनश्वर है, जो कि अपने ऊपर लिपटे हुए कर्मों के अनुसार उनका भुगतान करने उच्च या नीच गति में जाता है । तो शरीर को सुख पहुंचाकर आत्मा को सुखी मानने वाले तथा सांसारिक पदार्थों को इकट्ठा करके उन्हें 'मेरी' कहने वाले महान् भूल करते हैं । शारीरिक सुखों को प्रदान करने वाली वस्तुएँ कभी आत्मा को सुख पहुंचाने में समर्थ नहीं बन सकतीं । कवि ने आगे यही बात कही है - हो जल में उत्पन्न जलज ज्यों जल से ही न्यारा है । भी निर्धारा है । त्यों शरीर से भिन्न चेतना को तो दुनिया की अन्य वस्तुएं कैसे समझ निराले आत्मरूप को मत कह होंगी तेरी ? मेरी मेरी ॥ - जिस प्रकार जल से उत्पन्न होकर भी कमल जल से ऊपर यानी जल से अलग रहता है, उसी प्रकार शरीर में स्थित चेतना भी शरीर से पूर्णतया भिन्न होती है । अतः हे प्राणी अपने शुद्ध और शाश्वत आत्म-स्वरूप को भली-भाँति समझ ले और दुनिया की वस्तुओं को मेरी मानकर उन्हीं में आसक्त मत बन । अगर तू आत्मा और शरीर को भिन्न नहीं समझेगा तो जीवन भर केवल शरीर की खुराक ही जुटाता रह जाएगा तथा आत्मा की खुराक के लिये कुछ भी नहीं कर सकेगा । अतः कवि के अगले शब्दों में सदा इस बात का चिन्तन किया कर - मैं हूँ सबसे भिन्न अन्य अस्पष्ट निराला, आत्मीय सुखसागर में नित रमने वाला । सब संयोगज भाव दे रहे मुझको धोखा, हाय न जाना मैंने अपना रूप अनोखा ॥ विवेकी पुरुष को चिन्तन करना चाहिये कि - "मैं अर्थात् चेतन, संसार के समस्त पदार्थों से, सब संबंधियों से और इतना ही नहीं बल्कि अपने शरीर से भी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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