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________________ धोबीड़ा, तू धोजे मन धोतियो रे ! प्रदान करती है। किन्तु कैर का झाड़ जैसा होता है, वैसा ही बना रहता है। उस पर वसंत ऋतु का कोई असर नहीं होता। ऐसी स्थिति में वसंत क्या कर सकता है ? ____कहने का अभिप्राय यही है कि हमें मन को शुद्ध करना चाहिये तथा राग और द्वष को छोड़ना चाहिये । राग-द्वोष के कारण ही संसार में कलह होते हैं । आप के घर में आप चार भाई हैं । चारों के संतान है। किन्तु आप अपने पुत्र को देखकर प्रसन्न होते हैं, उसे खिलाते हैं, प्यार करते हैं तथा बाजार से मिठाई, खिलौने आदि लेकर आते हैं। पर अपने भाई के पुत्र से द्वेष रखते हैं, उसे साधारण-सी बात पर फटकार देते हैं और गालियाँ देते हैं, तो उसका परिणाम क्या होगा? यही कि आपका भाई आपसे लड़ेगा और अपने हिस्से का धन लेकर आपसे अलग हो जाएगा। . इसीलिये बंधुओ, हमें राग-द्वेष को अपने मन से हटाकर सांसारिक पदार्थों पर रही हुई आसक्ति को जीत लेना है। क्रोध, मान, माया और लोभ, ये चारों मन को मलिन बनाने वाले दोष हैं । जो भव्य प्राणी इन्हें जीत लेता है, उसका मन ही शुद्ध और स्वच्छ बनता है। __ कहते हैं कि एक बार रामकृष्ण परमहंस ने स्वामी विवेकानन्द से कहा-- "मैं तुम्हें अष्टसिद्धि प्रदान करना चाहता हूँ। क्योंकि तुम्हें अभी जीवन में बड़ेबड़े कार्य करने हैं, अतः इनसे बहुत सहायता मिल सकेगी। बोलो, लेना चाहते हो इन्हें ?" कुछ क्षण गंभीरतापूर्वक विचार करने के पश्चात् विवेकानन्द जी ने पूछा"महात्मन् ! क्या इनसे मुझे ईश्वर की प्राप्ति हो जाएगी ?" "नहीं, ईश्वर की प्राप्ति तो इनसे नहीं हो सकेगी।" परमहंस ने उत्तर दिया। ___ यह सुनकर विवेकानन्द जी विरक्त होकर बोले-"जिन सिद्धियों से मुझे ईश्वर-लाभ न होकर केवल सांसारिक यश प्राप्त हो, उन्हें लेकर मैं क्या करू गा ? मुझे इनकी फिर कोई आवश्यकता महसूस नहीं होती।" वास्तव में वही प्राप्ति श्रेष्ठ होती है जिसके द्वारा आत्मा कर्म-भार से हलकी होती हुई परमात्मपद को प्राप्त होती है। इसलिये महापुरुष मन की शुद्धि का ही प्रयत्न करते हैं । वे केवल यही संकल्प रखते हैं कि 'नो उच्चावयं मणं नियंछिज्जा ।' Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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