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________________ स्वागत है पर्वराज ! से जब वह तैरने लगा तो बड़े हर्ष से बाल-सुलभ चंचलता पूर्वक कहने लगे-"मेरी नाव तैर रही है, मेरी नाव तैर रही है।" इधर जब पीछे से और सन्त आये तो उन्होंने ऐवन्ता मुनि के इस कृत्य को देखा । यह देखकर कि ऐवन्ता कुमार ने मुनि होकर भी सचित्त जल का स्पर्श किया है तथा मिट्टी की प ल बांध कर उसके पानी में पातरी तैरा रहे हैं, वे लोग बहुत नाराज हुए और कहने लगे--- "भगवान भी बिना सोचे समझे चाहे जिसको दीक्षित कर लेते हैं। क्या ऐसा कार्य साधु के लिये उचित है ?" कुछ देर बाद भगवान के समीप पहुंचकर भी उन्होंने ऐवन्ता मुनि की शिकायत की। पर बन्धुओ, आप जानते हैं कि भगवान ने उन क्रियानिष्ठ सन्तों को क्या उत्तर दिया ? उन्होंने फरमाया- "सन्तो! अगर तुम्हें आत्म-कल्याण करना है तो इस बाल-मुनि की सेवा अग्लानि पूर्वक करो। यह सरल और भद्र मुनि ऐवन्ता कुमार इसी भव में मोक्ष प्राप्त करेगा।" भावना भवनाशिनी कहने का अभिप्राय यही है कि धर्म का पालन करने के लिए बड़े-बड़े अनुष्ठानों की और लम्बे-चौड़े क्रियाकाण्डों की आवश्यकता भी नहीं है। धर्म सरल और निष्कपट हृदय में निवास करता है। कहा भी है 'धम्मो सुद्धस्स चिट्ठई ।' जिसका हृदय शुद्ध है, धर्म का वहीं निवास होता है। ऐवन्ता मुनि ने भले ही सचित्त जल का स्पर्श करके साधु के व्रत में दोष लगाया होगा किन्तु उनके हृदय में दोष-पूर्ण कार्य करने की भावना नहीं थी और दोष भावनाओं पर ही अवलंबित होते हैं । भावनाओं में जहाँ विकार होते हैं, वहाँ उनके अनुसार क्रिया न करने पर भी आत्मा पाप की भागी बनती है और जिसके हृदय में दोषपूर्ण भावनाएँ नहीं होतीं, उसके द्वारा अनजान में दोष-पूर्ण कार्य हो जाने पर भी आत्मा को पाप स्पर्श नहीं करते। सूक्ति मुक्तावली में कहा गया है भावेषु विद्यते देवस्तस्माद्भावो हि कारणम् । सात्विक भावनाओं में ही ईश्वरत्व का निवास है, अतएव भावनाएं ही ईश्वर की प्राप्ति में कारणरूप हैं । इसलिए मुमुक्षु के लिए आवश्यक है कि वह अपनी भावनाओं को शुद्ध और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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