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________________ महल हो या मसान..! धर्मप्रेमी बंधुओ, माताओ एवं बहनो ! कल के प्रवचन में हमने नवें परिषह के विषय में बात की थी जिसमें बताया गया था कि साधु ग्रामानुग्राम में विचरण करे तथा राग-द्वेष एवं आसक्ति आदि से रहित होकर निस्संग भ्रमण करे। आज हमारे सामने बाईस परिषहों में से दसवाँ परिषह आता है। इस परिषह का नाम है-'नषेधिकी परिषह ।' इस विषय में गाथा है सुसाणे सुन्नगारे वा हक्खमूले व एगो । अकुक्कुओ निसीएज्जा न य वित्तासए परं॥ --उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन २.२० अर्थात्-~-साधु श्मशान में, शून्य घर में या वृक्ष के मूल में किसी प्रकार की भी कुचेष्टा को न करता हुआ राग-द्वेष से रहित अकेला ही बैठे और किसी भी 'प्रकार से अन्य जीवों को त्रास न देवे । भगवान महावीर ने जिस प्रकार साधु को चर्या परिषह सहन करने का आदेश दिया है, उसी प्रकार नषेधिकी परिषह को भी पूर्ण समभाव एवं शांतिपूर्वक सहन करने के लिए कहा है । उन्होंने फरमाया है कि साधु को संयोगवश अगर शून्य घर में, वृक्ष के नीचे या श्मशान भूमि में भी ठहरना पड़े तो निःशल्य होकर ठहरे। और वहां पर किसी भी प्रकार की कुचेष्टा न करे । क्योंकि ऐसा करने से प्रथम तो मन अस्थिर होता है तथा चंचलता बढ़ती है, दूसरे अन्य जीवों की हिंसा होने का भय रहता है। २८७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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