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________________ साधू तो रमता भला, दाग न लागे कोय २८५ तो कवि ने भी शरीर की वास्तविकता बताते हुए इस देह के ऊपरी रूप को ही सब कुछ न मानकर आंतरिक घृणित वस्तुओं पर ध्यान देने को कहा है तथा ज्ञानपूर्वक मनन करते हुए इससे लाभ उठाने की प्रेरणा दी है । आगे कहा है बीजा जोया एवं आ पण, नामे केवल न्यारू। सर्व प्रकारे साचवतो पण आखर छे पड़नारू । सारासार विचार करो तो भवसागर नू वारू, केशव हरि कारीगर तेन, जीव विश्वमा संभारू। कहते हैं कि जिस प्रकार हम औरों के शरीर को नष्ट होता हुआ देखते हैं, उसी प्रकार हमारा शरीर भी नष्ट होने वाला है । इसकी चाहे जितनी सार-संभाल करें पर एक दिन तो यह जाएगा ही। शरीर सभी के नश्वर हैं और एक जैसे हैं । केवल नाम ही अलग-अलग हैं । इसलिए कवि जीवात्मा को संबोधित करता हुआ कहता है कि-'तू संसार में सार क्या है और असार क्या है, इस बात को समझ तथा सार को ग्रहण करके असार का त्याग कर दे । सार ही संसार सागर से पार उतारने वाली नौका के समान है, अतः उसे ग्रहण करके पार उतरने का प्रयत्न कर ।' प्रश्न होता है कि आखिर सार यहाँ पर क्या है ? इसका उत्तर बड़े विस्तार से दिया जा सकता है पर हमें संक्षेप में इस प्रकार समझना है कि आत्मा से भिन्न जो भी वस्तुएँ हमें दिखाई देती हैं वे सब असार हैं और आत्म-रूप के समीप ले जाने वाली भावनाएँ सार-रूप हैं । आत्मा के गुण ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र की आराधना करना तथा संवर-मार्ग को अपनाकर कर्मों की निर्जरा करना ही सार है। पर यह तभी होगा जब कि व्यक्ति बाह्य पदार्थों से सुख प्राप्त करने की इच्छाओं का त्याग करे तथा द्रव्य, मान एवं कीर्ति आदि की कभी आकांक्षा न करे। एक उदाहरण है भगवद्गीता का सार ___ एक विद्वान ब्राह्मण किसी राजा के पास पहुँचा और उनसे बोला-"महाराज ! मैंने धर्मग्रन्थों का बहुत अध्ययन किया है अतः मैं आपको भगवद्गीता पढ़ाना चाहता हूँ।" राजा भी होशियार था। उसने सोचा-जो व्यक्ति गीता का गंभीर अध्ययन कर ले, वह राज-दरबार में मान-प्रतिष्ठा प्राप्त करने की आकांक्षा नहीं कर सकता। अतः उसने उत्तर दिया-"महाराज ! मैं आपको अपना शिक्षक अवश्य बनाऊंगा, किन्तु अभी आप गीता का पूरा अध्ययन कर लें। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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