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________________ २६८ आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग सेठ के बड़े पुत्र ने आखिर उनसे पूछा-''पिताजी ! आज आप इतने उदास और परेशान क्यों हैं ? लगता है एक रात्रि में ही आप बदल गए हैं ? क्या स्वास्थ्य संबंधी कोई तकलीफ है आपको?'' ___ सेठजी यद्यपि किसी से कुछ कहना नहीं चाहते थे। क्योंकि लक्ष्मी के लोप होने जैसी दुखद सूचना देकर परिवार के व्यक्तियों को अभी ही चिन्ता में डालना वे ठीक नहीं समझते थे । दूसरे वे सोचते थे कि अपार धन होने के कारण सभी को सुख-पूर्वक रहने के साधन मिले हुए हैं, और किसी प्रकार की कमी न होने से ही सारा परिवार ठीक रह रहा है, पर लक्ष्मी के जाने की सूचना पाते ही या जाते ही घर में सब एक-दूसरे से कलह करेंगे और सम्भव है सभी पुत्र अपनी-अपनी पत्नियों को लेकर अलग हो जायें। यही सब विचार उन्हें परेशान कर रहे थे और उनके कारण वे मानसिक अशान्ति का शिकार बने हुए थे। किन्तु जब पुत्र ने पूछ ही लिया तो वे अपने आपको रोक न सके और लक्ष्मी की बात को उन्होंने ज्यों का त्यों अपने पुत्रों, पुत्रवधुओं और पत्नी के समक्ष कह दिया। सेठ जी की बात सुनकर एक बार तो वे सब काठ के समान स्तब्ध रह गये और कुछ उत्तर नहीं दे पाये, किन्तु जब सेठ जी ने पूछा कि - "आज मैं लक्ष्मी की बात का क्या उत्तर दूं यह बताओ?" तो वे लोग प्रकृतिस्थ हुए और सोचने लगे कि क्या कहा जाय, यानी लक्ष्मी के न होने पर परिवार पर क्या प्रभाव पड़ेगा, इस विषय में क्या उत्तर दिया जाय । आश्चर्य की बात थी कि लक्ष्मी की बात का उत्तर किसी की भी समझ में नहीं आया और वे सब एक-दूसरे का मुंह देखने लगे। किन्तु सेठजी की सबसे छोटी पुत्रवध बड़ी बुद्धिमती थी। उसने अपने ससुर के कहा- "पिताजी ! आप लक्ष्मी से कह दीजियेगा कि तुम्हारे चले जाने पर भी हमारे परिवार पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। क्योंकि धन तो आज होता है और कल नहीं । इसमें आश्चर्य और दुःख की क्या बात है ? दूसरे, आप यह कहियेगा कि मेरे परिवार के सभी सदस्य एक दूसरे पर जान देते हैं अतः लक्ष्मी के न होने पर भी सब मिल जुलकर परिश्रम करेंगे और सूखी रोटी भी आपस में बाँट कर प्रसन्नता से खाएंगे । पुत्रवधू की बात सुनकर सेठ जी बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने देखा कि अन्य सब व्यक्ति भी असीम हर्ष सहित उसकी बात का समर्थन कर रहे हैं । यह देखकर उनके हृदय पर से बोझ हट गया और वे लक्ष्मी के प्रश्न का उत्तर देने के लिए तैयार हो गये। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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