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________________ २५८ आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग ...... ब्रह्मचर्य भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण वस्तु है और इसलिये उसकी रक्षा के निमित्त नो बाड़ें मानी गई हैं, जिनका पालन करने से शीलव्रत की सुरक्षा हो सकती है। आप सोचेंगे, शील की रक्षा के लिये नौ बाड़ों की क्या आवश्यकता है ? क्या एकदो से उसकी रक्षा नहीं हो सकती ? । ___ इसका उत्तर इस प्रकार दिया जा सकता है कि इस संसार में जो वस्तु जितनी अधिक मूल्यवान मानी जाती है, उसकी सुरक्षा के लिये उतना ही अधिक प्रयत्न किया जाता है। - आप लोग अपने घर में वस्त्र या बर्तन-भांड़े बाहर का एक ताला लगाकर भी छोड़ देते हैं, किन्तु सोने, चांदी, हीरे, पन्नों के आभूषणों को इस प्रकार नहीं रखते। उन्हें तो हवेली के सब कमरों से अन्दर वाले कमरे में या और भी नीचे तहखाने में तथा ऊपर से तिजोरी में बन्द करके रखते हैं। अब बताइये ? आपके बहुमूल्य रत्नों को कितने कमरे पार करके और फिर तिजोरी खोलकर निकाला जायगा । क्या कभी तिजोरी को आप अपने घर के बाहर वाले बरामदे में रखते हैं ? नहीं, क्यों नहीं रखते ? एक बड़ा मजबूत ताला तो उसमें लगा हुआ ही होता है । वह एक ताला क्या आभूषणों की रक्षा के लिये काफी नहीं होता? फिर क्यों एक के बाद एक इस प्रकार कई कमरों के अन्दर उसे ले जाकर रखते हैं ? इसलिये ही तो कि उसमें बहुमूल्य वस्तुएँ रहती हैं। इसी प्रकार ब्रह्मचर्य को भी सर्वाधिक मूल्यवान माना गया है अतः उसके लिये नौ बाड़ें अथवा उसकी रक्षा के लिये नौ उपाय बताए गए हैं। उन्हें भी मैं संक्षिप्त में आपको बताये दे रहा हूँ। (१) पहला उपाय या पहली बाड़ ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले साधक के लिये यह हैं कि जहाँ पर स्त्री अकेली रहती हो, नपुंसक रहता हो या पशु बाँधे जाते हों वहाँ पर साधु कभी न ठहरे । इनके समीप रहने से चित्त में चंचलता बढ़ती है और विकार जागृत होते हैं । कहा भी है - विलीयते घृतं यद्वदग्नेः संसर्गतस्तथा । नारी संसर्गतः पुंसो, धैर्य नश्यति सर्वथा ॥ जिस प्रकार अग्नि के संपर्क से घी पिघल जाता है, उसी प्रकार स्त्री के संपर्क से पुरुष का धैर्य नष्ट हो जाता है। (२) दूसरी बाड़ यह है कि साधु स्त्री संबंधी कथा-वार्ता न करे। नारी सम्बन्धी कथाएं पढ़ने से और उनसे सम्बन्धित वार्तालाप करने से भी चित्त अस्थिर हो जाता है। हम देखते हैं कि जहाँ चार व्यक्ति किसी विषय को लेकर बातें प्रारम्भ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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