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________________ २५६ आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग विषयों की इच्छा नहीं छोड़ती । अतः हे प्रभो ! इन भोगेच्छाओं से डरता हुआ मैं आपकी शरण में आया हूँ। कहने का अभिप्राय यही है कि जो व्यक्ति दूध घी, मिष्टान्न तथा विकारों को बढ़ाने वाले अन्य पौष्टिक पदार्थ नहीं खाते तथा घास फूस पर सोकर रातें गुजारते हैं, उन्हें भी जब काम-विकार नहीं छोड़ते तो फिर ऐश्वर्य व सुख के प्रचुर साधनों के बीच में रहने वालों की तो बात ही क्या है ? तपस्वी विश्वामित्र जो वर्षों तपस्या करते रहे थे, अप्सरा मेनका के रूप पर मुग्ध होकर विषयों के शिकार बन गये । पेड़ों के पत्ते और जल पर जीवन टिकाने वाले पराशर ऋषि, जिन्होंने दिन को रात और नदी को रेत में परिणत कर दिया था वे भी काम को वश में नहीं कर सके। इतना ही नहीं, बड़े बड़े देवता भी काम को वश में नहीं कर सके और स्वयं उनसे हार गये । आत्म-पुराण में लिखा है कामेन विजितो ब्रह्मा, कामेन विजितो हरिः । कामेन विजितः शम्भुः, शकः कामेन निजितः ॥ यानी कामदेव ने ब्रह्मा, विष्णु, शिव और इन्द्र को भी जीत लिया। इसीलिए सभी धर्म ग्रन्थ उन साधकों को जो संसार से मुक्त होने की अभिलाषा रखते हैं, स्त्रयों के संसर्ग से दूर रहने का आदेश देते हैं। वे तो यहाँ तक कहते हैं कि स्त्री का दर्शन करना भी मुमुक्ष के लिये उचित नही है । कहा है संभाषयेत् स्त्रियं नैव पूर्वदृष्टांश्च न स्मरेत् । कथां च वर्जयेत्तासां, नो पश्यल्लिखितामपि ॥ श्लोक में कहा गया है-न तो स्त्री के साथ बात करनी चाहिये, न पहले देखी स्त्री को याद करना चाहिये और न ही उसकी चर्चा करनी चाहिये । यहाँ तक कि उसका तो चित्र भी कभी नहीं देखना चाहिये । कहा जाता है कि एक तपस्वी जीवन भर तपस्या करते-करते वृद्ध हो गया। वह पूर्ण जितेन्द्रिय माना जाता था, और एक मंदिर में अकेला ही रहता था। संयोगवश एक बार एक सुन्दर युवती उधर से गुजरी। तपस्वी की दृष्टि उस पर पड़ गई और वह मोहित होकर उसके पीछे चल दिया। स्त्री अपने घर पहुंची तब भी दरवाजे पर खड़ा हुआ तपस्वीं उससे अपनी इच्छापूर्ति के लिये प्रार्थना करने लगा। . स्त्री को तपस्वी पर बड़ा क्रोध आया और उसने दरबाजा बन्द करना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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