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________________ २४६ आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग पास धन, मकान, खेत, बाग-बगीचे आदि कुछ नहीं हैं, केवल वही हैं जो उसके पास और नाम मात्र का है । इन सबसे रहित होकर ही जो आनन्द और हलकापन महसूस करता है वही सच्चा साधु और फकीर कहलाता भी है । महात्मा कबीर अपने आपको ऐसा ही फकीर मानते थे, और कहते थे मन लागो मेरो यार फकीरी में । जो सुख पावों नाम भजन में: सो सुख नाहि अमीरी में । भली बुरी सब की सुनि लीजे, कर गुजरान गरीबी में ।। प्रेम नगर में रहनि हमारी, भलि वनि आई सबूरी में । कबीर जी का कहना था - "अरे दोस्त ! मेरा मन तो फकीरी में लग गया है । इसमें जो आनन्द और उत्साह का अनुभव होता है, वह धनाढ्यता में कतई नहीं है । फकीर को चाहिये ही क्या ? बस उसे प्रभु के नाम का स्मरण करना है तथा गरीबी में भी सुख से गुजारा करते हुए लोगों की अच्छी और बुरी बातों को गले से जाना है । afa ने कितनी सुन्दर बात कह दी है कि वही व्यक्ति जो ओरों की गालियों और प्रशंसा एक ही भाव से सुनता है तथा प्रशंसा सुनकर खुश नहीं होता और निंदा सुनकर शोक नहीं करता, वह सच्चा फकीर कहलाता है । यद्यपि सांसारिक प्राणियों के लिये ऐसा कर सकना बड़ा कठिन है। आप सेठों और साहूकारों को तो अगर कोई एक शब्द भी अप्रिय लगने वाला कह दिया जाय तो आप ऐसे उछल पड़ते हैं, जैसे सर्प पूँछ पर पैर पड़ जाने से उछलता है । किन्तु साधु के लिये यह बात नहीं है, वह कटु शब्द और गालियों सुन लेना तो क्या, अनुभव नहीं करता । उलटे मानता है । गर्दन काट दिये जाने पर भी कष्ट का कर्मों की निर्जरा या संचित कर्मों का भार उतरना आगे कहते हैं - 'प्रेम नगर में रहनि हमारी' अर्थात् संतों की दुनिया उनके इतः तत ही सीमित होती है । वे प्रभु से प्रेम करते है और उसी प्रेम व भक्ति की दुनिया में मस्त रहते हैं । उनका विचार यह होता है कि- 'बड़ा अच्छा हुआ जो हमने संसार से नाता तोड़ लिया और सांसारिक पदार्थों पर से आसक्ति हटाकर संतोष को धारण कर लिया। इससे हमारा बहुत भला हुआ है, क्योंकि सभी प्रकार की चिताओं का अन्त हो गया अगर गृहस्थी के झमेले में रहते तो नित्य नई चिन्ताएँ परेशान करती रहती ।' । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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