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________________ २४४ आनन्द प्रवचन | पांचवां भांग यहाँ यह बताया गया है कि जिनकल्पी अवस्था में साधु वस्त्र रहित भी किसी समय हो जाता है तथा किसी समय स्थविरकल्पी अवस्था में वस्त्र युक्त भी होता है । अतः इन दोनों अवस्थाओं को अपनाकर इन दोनों ही धर्मों को हितकारक समझकर 'नाणी' ज्ञानी साधक कभी खेद न करे । बंधुओ, आपको यहाँ कुछ ध्यान देकर समझना है कि साधु की दो कोटियाँ मानी गई हैं । उनमें से प्रथम है जिनकल्पी और द्वितीय कहलाती है स्थविरकल्पी | जिनकल्पी अवस्था में साधु वस्त्र का सर्वथा त्याग कर देता है तथा स्थविर कल्पी अवस्था में वस्त्र धारण करता है । मुख्य बात यह है कि ये दोनों ही धर्म या आचार शास्त्रविहित हैं तथा दोनों ही अवस्थाओं में आत्मा की पूर्ण हित साधना हो सकती है । दोनों ही स्थितियों में साधु अपने संयम का पालन करता हुआ अन्य अनेक प्राणियों को धर्माराधन का सही मार्ग बता सकता है तथा उन्हें धर्म का सच्चा स्वरूप समझा कर आत्मोन्नति की ओर बढ़ा सकता हैं । इस कथन का आशय यही है कि साधु के वस्त्र सहित या वस्त्र रहित होने से कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि उसकी महत्ता वस्त्रों से नहीं अपितु गुणों से तथा उत्तम भावनाओं से होती है । साधु के जीवन में भाव -शुद्धि का महत्त्व ही होता है वस्त्रों के होने न होने का नहीं । इसीलिये कहा गया है कि सचेलक अथवा अचेलक, दोनों ही दशाओं को धर्महितकारक मानकर साधु अपनी साधना को त्यागमय एवं दृढ़ बनाता चले । वह वस्त्रादि के अभाव में यह चिन्तन कभी न करे कि मुझे शीत का कष्ट होगा और उस अवस्था में मैं कहाँ जाऊँगा ? ऐसा चिन्तन करना दीनता और दुर्बलता का द्योतक है अतः इनका सर्वथा त्याग करके साधु को शीतादि परिषहों को सहर्ष सहन करने के लिये प्रस्तुत रहना चाहिये । तभी उसे अचेल परिषह पर विजय प्राप्त हो सकेगी तथा उसकी आत्मा अमरत्व की ओर अग्रसर होगी । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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