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________________ कं बलवन्तम् बाधते शीतम् १६७ कहना है कि अगर तुममें थोड़ी भी समझ, बुद्धिमानी, विवेक, और आत्म-विश्वास आदि हैं तो गये हुए समय के लिये पश्चात्ताप मत करो और निराशा का भी सर्वथा त्याग करके पुनः जीवन को उत्थान की ओर ले जाने का प्रयत्न करो। जिस प्रकार सम्पूर्ण रस्सी कुए में चली जाए पर चार अंगुल हाथ में रहे तो पूरी रस्सी ऊपर खींच ली जाती है, इसी प्रकार कितनी भी जिंदगी क्यों न बीत गई हो, जो भी वर्ष, महीने, दिन, घंटे या क्षण भी बाकी हैं उनसे भी लाभ उठाने का प्रयत्न करो। जीवन भर पाप करने वाला व्यक्ति भी अगर अपने अन्तिम समय में किये हुए पापों का प्रायश्चित करके शुद्ध समाधिभाव धारण कर लेता है तो वह बहुत कुछ साथ लेकर इस लोक से प्रयाण करता है । र पर बधुओं, इसका यह अर्थ भी आप मत लगा लेना कि इस दृष्टि से तो हम अपना जीवन चाहे जेसे, अर्थात् भोग-विलास या कुकृत्य करके भी बितालें तो कोई बात नहीं है क्योंकि अन्तिम क्षणों पर तो सारा दारोमदार है ही और तभी परलोक सुधार लेंगे। अगर आपने ऐसा सोच लिया तो इससे बढ़कर मूर्खता और कोई नहीं होगी । जीवन का अन्त कैसा होना है, प्रथम तो यह भी कोई नहीं जानता और अंत-समय में परिणाम अच्छे हो ही जाएंगे इसको भी गारंटी नहीं है । .: इसलिये आप क्योंकि श्रावक हैं और श्रावक के नाते आपकी सीमाएं विस्तृत है अतः आपको अधिक कार्य करना है तथा जीवन में अधिक सावधानी भी बरतनी है। मनि तो जिस बात का त्याग करते हैं उसे पूर्ण रूप से छोड़ देते हैं। किन्तु आपको तो सांसारिक कार्य करते हुए भी व्रतों को निभाना है और दूसरे शब्दों में ससार में रहकर भी संसार से परे रहना है। आपका जीवन भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। समय-समय पर आपके लिये भी कसौटियाँ तैयार रहती हैं और उन पर आपको खरा उतरना है। पूज्यपाद श्री अमीऋषि जी महाराज ने फरमाया है मानुष जनम शुभ पाय के भुलाय मत, __ औसर गमाय चित्त फेर पछितावेगो। साधुजन संगत अनेक भांति धर ताप, छोरिके कुपंथ एक ज्ञान पंथ आवेगो । जीवदया सत्य गिरा अदत्त न लीजे कभी, धारि के शियल मोह ममत मिटावेगो । ठावेगो सुक्रिया ए तो मन में विरागधार, कहे अमोरिख तबे मोक्षपद पावेगो । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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