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________________ १२० आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग उच्चारण ही करते हैं । वे जो कुछ भी बोलते हैं उसे पहले ही विवेकपूर्वक अपने हृदय में तौल लेते हैं तथा सत्य व हितकारी जानकर तब उसे संसार के प्राणियों पर दया की भावना रखते हुए उन्हें उपदेश देते हैं । - सच्चे संत आगम के वचनों पर दृढ़ विश्वास रखते हैं तथा उन्हें आत्मा के लिये परम हितकारी मानते हैं । उनका चित्त धर्म में ऐसा रत रहता है कि मिथ्यात्व अथवा पाखंड उनके पास फटकने भी नहीं पाता। आगम की वाणी को वे स्वप्न में भी मिथ्या नहीं मानते और इसीलिये उनका वचनगुप्ति पर पूर्ण अंकुश होता है । उनकी जबान से किसी भी प्राणी को दुःख नहीं होता, किसी का अहित नहीं होता और कभी भी कोई किसी प्रकार के संकट में नहीं पड़ता। वाणी का मौन रखने वाले ऐसे सुगुरुं ही स्वयं संसार-सागर से तैरते हैं तथा औरों को भी पार उतारते हैं। कहने का अभिप्राय यही है कि प्रत्येक व्यक्ति को अनन्त पुण्यों के उदय से व्यक्त वाणी बोलने की क्षमता मिली है, उसे व्यर्थ ही नहीं गंवा देना चाहिये तथा बुद्धि और विवेकपूर्वक इसका पूरा-पूरा लाभ उठाना चाहिये । वाणी का लाभ उठाने से मेरा तात्पर्य यह नहीं है कि मनुष्य मीठा-मीठा बोलकर दूसरों का गला काटे और बेईमानी तथा अनैतिकता का आश्रय लेकर अपनी तिजोरियां भर ले। वरन यह आशय हैं कि वह दुखी और संतप्त जीवों को सान्त्वना प्रदान करे । वह ऐसी भाषा का प्रयोग न करे जिससे किसी के जान-माल की अथवा अन्य किसी भी प्रकार की हानि हो और 'मुंह में राम बगल में छुरी' यह कहावत चरितार्थ हो जाये । तो बन्धुओ, अगर हम अपनी वचनगुप्ति को विवेकपूर्वक काम में लेंगे तो इस जन्म और अगले जन्मों में भी सुखी बन सकेंगे। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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