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________________ आनन्द प्रवचन | पांचवां भाय जाट ने कहा--"यह स्त्री दुश्चरित्र है अतः मेरे कुल और वंश के लायक नहीं। मैं इसका त्याग करता हूँ।" . जाटनी ने जब यह सुना तो यह कह कर रवाना हो गई- 'मैं तो स्वयं ही तुम्हारे पास रहना नहीं चाहती थी।" लोगों ने जब यह सब समझा तो जाट की सूझ-बूझ और उसकी अपने कुल की प्रतिष्ठा के प्रति सजगता की भावना की सराहना करने लगे। किसी-किसी ने तो यह भी कहा-"तुमने बड़ा अच्छा किया जो इसके भाग जाने से पहले ही इसका त्याग कर दिया। अन्यथा न जाने यह तुम्हारा कितना धन-पैसा और चुराकर ले जाती।" बंधुओ ! जाट की कथा साधारण है किन्तु इससे बड़ी महत्वपूर्ण शिक्षा ली जा सकती है। संसार की धन दौलत एवं भोगोपभोग की सामग्रियां उस जाटनी के समान ही चंचल एवं अस्थिर हैं जिन पर भरोसा नहीं किया जा सकता । यानी आज जिसके पास हैं वे कल किसी और के पास भी चली जा सकती हैं । अतः जो चिन्तनशील और मनस्वी हैं वे उन सबको उनके जाने से पूर्व स्वय ही त्याग देते है। एक बात और ध्यान में देने की है कि जाटनी के लिये जिस प्रकार लोगों ने संभावना व्यक्त की थी कि अगर वह जाट के यहाँ अधिक समय ठहरती तो कुछ न कुछ चुराकर ले ही जाती। यही हाल सांसारिक उपलब्धियों का है। वे जितने अधिक काल तक मनुष्य के पास रहती हैं, उतनी ही आसक्ति की मात्रा मानव के मन में बढ़ती है और वह आसक्ति धीरे-धीरे मनुष्य के सद्गुणों को तथा सद्विचारों को नष्ट करती रहती है, दूसरे शब्दों में लूटती रहती है। तत्पश्चात् अशुभ कर्मों का संयोग मिलते ही वे उपलब्धियाँ किसी और के पास चल देती हैं किन्तु अपने जाने के साथ-साथ वे मानव के सद्गुणों को और जैसा कि अभी मैंने बताया है, सद्विचारों को भी अपने साथ ले जाती हैं। मनुष्य उनके लिये हाय-हाय करता रह जाता है और आसक्ति-जनित कर्मबंधनों को भुगतने के लिए केवल उसी जन्म में नहीं अपितु अनेक जन्मों तक के लिए बाध्य हो जाता है। इसलिए विवेकी एवं ज्ञानी पुरुष सांसारिक उपलब्धियों को उनके त्याग जाने से पूर्व ही स्वयं उन्हें त्याग देते हैं। अपनी सम्पूर्ण आसक्ति एवं ममता को नष्ट कर देते हैं। वे सदा यही चिन्तन करते हैं कि "संसार के समस्त संबंध और सम्पूर्ण पदार्थ नश्वर हैं । केवल आत्मा ही अनश्वर है। वे यह भी सोचते हैं कि सांसारिक पदार्थों से प्राप्त होने वाला सुख शाश्वत नहीं सुखाभास मात्र है। सच्चा सुख तो कर्मों से मुक्त होकर आत्मा के शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति कर लेने में है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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