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________________ सरलता के बहुमूल्य सूत्र मनुष्य जैसे-जैसे शास्त्र का विशेष अध्ययन करता है, वैसे-वैसे उसका ज्ञान बढ़ता है और विज्ञान उज्ज्वल होता है। ___ महर्षि पातन्जलि ने अष्टांग योग में तत्त्वज्ञान की प्राप्ति के लिये जहाँ अन्य साधनों का वर्णन किया है वहाँ स्वाध्याय को भी बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है। उन्होंने कहा है कि स्वाध्याय के द्वारा मनुष्य न केवल अपने को, अपने संबंधित समाज को ही जान सकता है और उसका सुधार कर सकता है, अपितु वह परमतत्त्व भी प्राप्त कर सकता है। वृहत् कल्पभाष्य में कहा गया है न वि अस्थि न वि अ होही, सज्झाय समं तवोकम्म । -स्वाध्याय के समान दूसरा तप न कभी अतीत में हुआ है, न वर्तमान में कहीं है और न भविष्य में कभी होगा। इस प्रकार हमारे यहाँ स्वाध्याय को महान तप माना गया है। इससे ज्ञान को आच्छादन करने वाले कर्मों का क्षय होता है तथा आत्मा में रहे हुए सम्यक ज्ञान के प्रकाश में प्राणी मुक्ति के सही मार्ग पर चल सकता है। सद्ग्रन्थ अथवा धर्मशास्त्र इस लोक में चिन्तामणि रत्न के समान हैं। जिनके पठन-पाठन या स्वाध्याय से मन की समस्त दुश्चिन्ताएँ मिट जाती हैं, संशय के भूत भाग जाते हैं और सद्भाव जागृत होकर आत्मा को परम शांति प्रदान करते हैं । श्री उत्तराध्ययन सूत्र में भी कहा है सज्झाए वा निउत्तेण, सव्वदुक्ख विमोक्खणे । अर्थात् - स्वाध्याय करते रहने से समस्त दुखों से मुक्ति मिल जाती है। इसलिये प्रत्येक व्यक्ति को अपना मनुष्यजन्म सार्थक करने के लिये सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय करना अनिवार्य कृत्य समझना चाहिये । स्वाध्याय की जितनी भी प्रशंसा की जाय,कम है । यह मस्तिष्क की खुराक है । शरीर को स्वच्छ रखने के लिये हम जिस प्रकार पौष्टिक पदार्थ खाते हैं, उसी प्रकार मस्तिष्क एवं मन को श्रेष्ठ एवं सुन्दर विचारों से परिपूर्ण बनाने के लिये स्वाध्याय रूपी पौष्टिक खुराक भी आवश्यक है । स्वाध्याय के अभाव में मानसिक एवं आत्मिक सभी शक्तियां दबी रह जाती हैं और उनके विद्यमान होते हुए भी हम उनका लाभ नहीं उठा पाते । स्वाध्याय के अभाव में हम हेय, ज्ञेय और उपादेय के अन्तर को नहीं जान सकते और उसके न जानने से हमें कर्तव्य एवं अकर्तव्य का बोध भी नहीं हो सकता। और स्पष्ट है कि जब तक हमें Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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