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________________ ३२० आनन्द प्रवचन भाग-४ सद्भावना के द्वारा संगठन बनाए रखने का प्रयत्न करे। ऐसा उसे अवश्य करना चाहिये। क्योंकि जिस समाज में आपने जन्म लिया है, जिस धर्म में आपने एक-एक श्वास ली है उसका आप पर ऋण है । आप कहेंगे-'हम क्या कर्ज लेने गए थे ?" अरे भाई ! जिस देश में जन्मे हो, जहाँ का अन्न-जल ग्रहण किया है । उस देश का, उस समाज का और उस धर्म का आप पर ऋण है और उसके उपकार से आप दबे हुए हैं। चाहे आप लखपति हों, चाहे करोड़पति हों या कि निर्धन हों किसी न किसी प्रकार से आपको वह ऋण उतारना ही चाहिये । पैसे वाले पैसे से समाज के व्यक्तियों का भला कर सकते हैं और जिनके पास पैसा नहीं है वे शरीर से और शरीर में भी जिनके शक्ति नहीं है वे मन से भी समाज-सेवा करने में समर्थ हो सकते हैं। पर यह सम्भव कैसे हो सकता है ? तभी होगा जबकि व्यक्ति अपने हृदय को स्नेहामृत से परिपूर्ण रखे तथा समस्त वैर-विरोध एवं कषाय को त्याग दे । शतावधानीजी श्री रत्नचन्द्रजी स्वामी ने 'भावना शतक' नामक ग्रन्थ में बारहों भावनाओं पर आठ-आठ श्लोक लिखे हैं, एक मंगलाचरण, एक उपसंहार के रूप में और दो श्लोक गुरु महाराज की प्रशस्ति में, इस प्रकार सौ श्लोक लिखे हैं । सभी श्लोक साधु-साध्वी एवं श्रावक-श्राविका आदि के लिये चिंतनीय तथा मननीय हैं। उनमें से एक श्लोक आपके सामने रखता हूँ: कषाय दोषा नरकायुरर्जकः . भवद्वयोद्वेगकराः सुखच्छिदः ॥ कदा त्यजेयुः मम संगमात्मनो, विभावयेत्यष्टम भावनाश्रितः ॥ 'क्रोध, मान, माया और लोभ ये चारों कषाय हैं। ये दोष नरकगति की आयू का उपार्जन करते हैं। जिसकी आत्मा में कषाय होते हैं वह नरक में जाता है और वहाँ नहीं पहुंचा तो तियंचगति में उसे जाना पड़ता है। चन्डकौशिक नरकगति में गया, अपने क्रोध के कारण। यह दुर्गति है सुगति नहीं, सुगति में मनुष्य गति अथवा देवगति मिलती है। ___ तो कषाय नरकगति का उपार्जन करते हैं और भवद्वय अर्थात् दोनों लोक में, उद्वेगकरः यानी अशान्ति पैदा करने वाले होते हैं। क्रोध करने से इहलोक और परलोक बिगड़ता है इसीप्रकार अभिमान, कपट और लोभ करने से भी दोनों भवों में अशान्ति ही प्राप्त होती है। आगे कहा है—इनसे दुःख ही मिलेगा, सुख नहीं । इसलिये आठवीं जो संवर भावना है उसका आश्रय, लेकर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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