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________________ २६४ आनन्द-प्रवचन भाग-४ चउविहे संजमे- मणसंजमे, वइसंजमे, काय संजमे, उवगरण संजमे । अर्थात् संयम के चार रूप हैं-मन का संयम, वचन का संयम, शरीर का संयम और उपधि सामग्री का संयम । इन चारों प्रकारों का संयम ही पूर्ण संयम कहलाता है। तो उद्यम के अभाव में इन चारों प्रकार के जबर्दस्त संयमों का पालन व्यक्ति कर भी कैसे सकता है ? इसीलिये कविश्री ने उद्यम पर अत्यधिक बल दिया है। आपने आगे कहा है -- केवल उद्यम ही एक ऐसा साधन है, जिसकी सहायता से इस लोक में दरिद्रता मिटाकर अपार ऋद्धि को प्राप्त किया जा सकता है तथा अनेक प्रकार की सिद्धियाँ और लब्धियां हासिल की जा सकती हैं । इतना ही नहीं, प्रबल उद्यम या पुरुषार्थ से ही जीव केवल दर्शन की प्राप्ति करके शिवगति यानी मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है। इसप्रकार अपने एक पद्य में ही महाराजश्री ने पुरुषार्थ के असीम महत्व को बताकर 'गागर में सागर' भर देने वाली कहावत चरितार्थ की है। आपकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि किसी एक विषय को ही आपने अपने कवित्व में नहीं लिया वरन धर्म की वृद्धि करने वाले सभी भावों को आपने अपनी कविताओं में गूंथ दिया है। संसार को असार एवं चंचल मानकर आत्मा को सन्मार्ग पर ले जाना चाहिये इस भाव को भी आपने अपने एक पद्य में बड़ी कुशलता से दर्शाया है इन्द्र धनुष्य ध्वजा सम चंचल, अंबु की लहर प्रपोट विचारो। कहत 'तिलोक' वो रीति खलक की, धार सुपंथ के आतम तारो ॥ यानी यह संसार स्वप्न के समान क्षणिक है। जिस प्रकार इन्द्र धनुष अल्प-काल के लिये दिखाई देता है और लुप्त हो जाता है, जल में उठने वाली लहर किनारे तक पहुंचते ही मिट जाती है, उसी प्रकार संसार की वस्तुएं भी थोड़े समय में नष्ट हो जाती हैं अतः भवि जीवो ! सन्मार्ग को ग्रहण करके अपनी आत्मा का कल्याण करो। आशा यही है कि इस संसार के पदार्थों में आसक्ति रखना और सांसारिक संबंधियों में मोह रखना वृथा है, लाभ इस जीवन का तभी हासिल हो सकता है जबकि इनसे उदासीन रहकर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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