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________________ विनय का सुफल विनय का फल आपने चन्द्रयश मुनि का उदाहरण सुना होना । जब उन्होंने दीक्षा ग्रहण नहीं की थी, एक दिन अपने बहनोई के साथ आचार्य रुद्रदत्त मुनि के दर्शनार्थ गये । १८१ साले बहनोई का रिश्ता हँसी मजाक का होता है, यह आप जानते हैं । इसी दृष्टि से चन्द्रयश कुमार के बहनोई ने मजाक में आचार्य से कह दिया"यहं हमारे साले चन्द्रयश जी आपके शिष्य होने के लायक हैं ।" आचार्य रुद्रदत्त बड़े क्रोधी स्वभ व के थे अतः उन्होंने यह सुनते ही पास ही पडी हुई राख में से मुट्ठी भर राब उठाई और चन्द्रयश के मस्तक के बालों कान कर दिया। इस घटना को चन्द्रयश ने अन्तःकरण से स्वीकार किया और उसी वक्त मुनिवेश धारण करके अपने आपको मुनि मान लिया । पर अब एक समस्या बड़ी विकट सामने आ खड़ी हुई । चन्द्रयश मुनि ने सोचा --" मैं अचानक ही मुनि बन गया हूँ अतः अब मेरे माता-पिता और कुटुम्बीजन आकर गुरुजी को परेशान करेंगे और बुरी- भली कहेंगे अतः अच्छा हो कि हम आज ही यहाँ से अन्यत्र चल दें ।" यह विचार कर वे विनयपूर्वक आचार्य से बोले -- Jain Education International -- "भगवन् ! हम आज ही यहाँ से चल दें तो कैसा रहे ?" क्रोधी गुरु ने उत्तर दिया--' तुझे दिखाई नहीं देता कि मैं चल सकने लायक नहीं हूँ ।" "मैं आपको अपने कन्धे पर उठाकर ले चलूँगा ।" चन्द्रयश मुनि ने कहा और किया भी यही । वे गुरुजी को अपने कन्धे पर बिठाकर वहाँ से शाम को रवाना हो गये | रास्ते में घोर अन्धकार था कुछ भी सुझाई नहीं देता था अत: पत्थर आदि की ठोकर लगने से आचार्य का शरीर अधिक हिल उठता था और अत्यधिक जर्जरावस्था होने के कारण उन्हें तकलीफ होती थी । परिणाम स्वरूप वे अपने हाथों और पैरों से नवदीक्षित मुनि को मारते जा रहे थे तथा जब से कटूक्तियाँ कहते जा रहे थे । किन्तु धन्य थे चन्द्रयश मुनि, जो कि गुरु के वाक्य बाणों की अथवा हाथों और पैरों के प्रहारों की परवाह न करते हुए विचार कर रहे थे - "हाय ! मैं पापी हूँ जिसके कारण मेरे गुरुजी को इतनी तकलीफ हो रही है । उनके इस दुख और विनय ने उनके परिमाणों में इतनी उच्चता ला दी कि उस समय ही उन्हें वह केवल ज्ञान हो गया जो कि वर्षों की घोर तपस्या और महान साधना के पश्चात् भी प्राप्त नहीं होता । केवल ज्ञान के परिणामस्वरूप उन्हें मार्ग कर कंकणवत् सुझाई देने लगा और वे पूर्ण सावधानी से गुरु को उठाये हुए मार्ग पर चलने लगे । इसका For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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