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________________ मेरी जीवनगाथा 290 ही सम्बन्धसे हुई। आपको द्यानतरायजी के सैकड़ों भजन आते थे। एक दिन मैंने खतौलीमें विद्यालय स्थापित करनेकी चर्चा कुछ लोगों के समक्ष की, तब लाला विश्वम्भरदास जी बोले कि आप चिन्ता न करिये। शास्त्रसभामें इसका प्रसंग लाइये, बातकी बातमें पाँच हजार रुपया हो जायेंगे। ऐसा ही हुआ। दूसरे दिन मैंने शास्त्रसभा में कहा-'आजकल पाश्चात्य विद्याकी ओर ही लोगों की दृष्टि है और जो आत्मकल्याणकी साधक संस्कृत-प्राकृत विद्या है उस ओर किसीका लक्ष्य नहीं। पाश्चात्य विद्याका अभ्यास कर हम लौकिक सुख पानेकी इच्छासे केवल धनार्जन करनेमें लग जाते हैं। पर यह भूल जाते हैं कि यह लौकिक सुख स्थायी नहीं है, नश्वर है, अनेक आकुलताओंका घर है; अतः प्राचीन विद्याकी ओर लक्ष्य देना चाहिये।' उपस्थित जनताने यह प्रस्ताव स्वीकृत कर लिया, जिससे दस मिनटमें ही पाँच हजार रुपयाका चन्दा भरा गया और यह निश्चय हुआ कि एक संस्कृत विद्यालय खोला जावे, जिसका नाम कुन्दकुन्द विद्यालय हो। दो दिन बाद विद्यालय का मुहूर्त होना निश्चित हुआ। बीस रुपया मासिकपर पं. मुन्शीलालजी, जो कि संस्कृतके अच्छे ज्ञाता थे, नियुक्त किये गये। अन्तमें विद्यालयका मुहुर्त हुआ, रुपया सब वसूल हो गये, एक बिल्डिंग भी विद्यालयको मिल गई। पश्चात् वहाँसे चलकर हम सागर आ गये। विद्यालय की स्थापना सन् १९३५ में हुई थी। यह विद्यालय अब कालेज के रूपमें परिणत हो गया है। जिसमें लगभग छह सौ छात्र अध्ययन करते हैं और तीस अध्यापक हैं। कुछ प्रकरण एक बार हम और कमलापति सेठ वरायठासे आ रहे थे। कर्रापुरसे दो मील दूर एक कुएँ पर पानी पी रहे थे। पानी पीकर ज्यों ही चलने लगे, त्यों ही एक मनुष्य आया और कहने लगा कि हमें पानी पिला दीजिये। मैंने कुएँसे पानी खींचकर दूसरे लोटामें छाना। वह बोला-'महाराज ! मैं मेहतर-भंगी हूँ। मैंने कहा-'कुछ हानि नहीं, पानी ही तो पीना चाहते हो, पी लो।' सेठजी बोले-'पत्ते लाकर दोना बना लो। मैं बोला-'यहाँ दोना नहीं बन सकता, क्योंकि यहाँ पलाशका वृक्ष नहीं है। मैंने उस मनुष्यसे कहा-'खोवा बाँधो, हम पानी पिलाते हैं। सेठजी बोले-'लोटा आगमें शुद्ध करना पड़ेगा। मैंने कहा-'कुछ हानि नहीं, पानी तो पिलाने दो।' सेठजीने कहा-'पिलाइये।' ____ मैंने उसे पानी पिलाया। पश्चात् वह लोटा उसे ही दे दिया और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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