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________________ 276 मेरी जीवनगाथा और आते ही कहने लगे- 'वर्णीजी ! भोजन तो नहीं कर लिये, मैं ताजा अंगूर लाया हूँ।' सब हँसने लगे। उस दिनके भोजनमें सबसे पहला भोजन उन्हींके अंगूरोंका हुआ । यह घटना देखकर सबको बड़ा आश्चर्य हुआ । इससे यह सिद्ध होता है कि जो भवितव्य है वह दुर्निवार है । अपनी भूल नैनागिरसे चलकर सागर आ गया । यहाँ एक दिन बाजार जाते समय एक गाड़ी लकड़ीकी मिली। मैंने उसके मालिकसे पूछा- 'कितनेमें दोगे ?' वह बोला- 'पौने तीन रुपयामें ।' मैंने कहा- 'ठीक ठीक कहो।' वह बोला- 'ठीक क्या कहें ? दो दिन बैलोंको मारते हैं, हम पृथक् परिश्रम करते हैं, इतनेपर भी सबेरेसे घूम रहे हैं, दोपहर हो गये, अभी तक कुछ खाया नहीं, फिर भी लोग पौने दो रुपयासे अधिक नहीं लगाते। मैंने कहा- 'अच्छा चले चलो, पौने तीन रुपया ही देवेंगे।' वह खुशीसे कटराकी धर्मशालामें गाड़ीकी लकड़ी रखने लगा। मैंने कहा- "काटकर रक्खो ।' वह बोला- 'काटनेके दो आना और दो ।' मैंने कहा- 'हमने पौने तीन रुपया दिये । सच कहो क्या पौने तीन रुपयाकी गाड़ी है।' वह बोला- 'नहीं, पौने दो रुपयासे अधिककी नहीं, परन्तु आपने पौने तीन रुपयामें ठहरा ली, इसमें मेरा कौन-सा अपराध है ? आपने उस समय यह तो नहीं कहा था कि काटना पड़ेगा। मैंने कहा - 'नहीं।' वह बोला- 'तब दो आना के लिए क्यों बेईमानी करते हो, मैं एकदम बोला- 'अच्छा नहीं काटना चाहता है तो चला जा, मुझे नहीं चाहिये।' वह बोला- 'आपकी इच्छा। मैं तो काटकर रखे देता हूँ, पर आप अपनी भूल पर पछताओगे । परन्तु यह संसार है, भूलोंका घर है ।' अन्तमें उसने लकड़ी काटकर रख दी। मैंने पौने तीन रुपया उसे दे दिया । वह चला गया। जब मैं भोजन करनेके लिए बैठा । आधे भोजनके बाद मुझे अपनी भूल याद आई। मैंने एकदम भोजनको छोड़ हाथ धो लिए । बाईजीने कहा- 'बेटा ! अन्तराय हो गया ?' मैंने कहा - 'नहीं ! लकड़ीवालेकी सब कथा सुनाई। बाईजीने कहा- 'तुमने बड़ी गलती की जब पौने दो रुपयाके स्थानपर पौने तीन रुपया दिए तब दो आना और दे देता ।' अन्तमें एक सेर पक्वान्न और दो आना लेकर चला। दो मील चलनेके बाद वह गाड़ीवाला मिला। मैंने उसे दो आने और पक्वान्न दिया । वह खुश हुआ। मुझे आशीर्वाद देता हुआ बोला- 'देखो, जो काम करो, विवेकसे करो । आपने पौने दो रुपयेके स्थानमें पौने तीन रुपया दिये, यह भूल की। पौने दो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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