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________________ प्रस्तावना ६१ वृक्ष मरकतमणि के बने हुए हरे-हरे पत्ते एवं रत्नमय चित्र-विचित्र फूलों से अलंकृत रहता है। वह विस्तृत शाखाओं से युक्त शोक रूपी अन्धकार को नष्ट करने वाला है। महान् आत्माओं के आश्रय से वृक्ष जैसे तुच्छ पदार्थों की भी महान् प्रतिष्ठा होती है। अशोक-वृक्ष इसका सुन्दर दृष्टान्त है।" (२) रत्लजटित सिंहासन- तीर्थंकर प्रभु रत्नजटित सिंहासन पर विराजते हैं। उनका सुवर्ण के समान दैदीप्यमान शरीर इस प्रकार सुन्दर प्रतीत होता है, जैसे उन्नत उदयाचल के शिखर पर सूर्य। (३) तीर्थंकर प्रभु के मस्तिष्क पर तीन छत्रों का रहना। (४) भामण्डल अथवा प्रभामण्डल का साथ रहना- भगवान् के शरीर का प्रभामण्डल अमृत के सदृश निर्मल एवं जगत् के लिए अनेक मंगल रूप तथा दर्पण के समान स्पष्ट होता है। उसमें देव, राक्षस और मनुष्यों को अपने सातसात भव स्पष्ट रूप से दिखलाई पड़ते थे। (५) दिव्य-ध्वनि का खिरना- तीर्थंकर प्रभु की दिव्य-ध्वनि को अमृत के नाम से भी पुकारा जाता है। क्योंकि भव्य-जीव इस वाणी को अपने कानों से सुनकर इसका रसपान करके अत्यन्त आनन्दित होकर अजर-अमर पद को प्राप्त करते हैं। यह दिव्यध्वनि स्याद्वादमयी होती है। (६) दिव्य-पुष्यों की वर्षा- आकाश से सुगन्धि युक्त दिव्य पुष्पों की वर्षा होना। (७) तीर्थंकर प्रभु के सिर पर देवों द्वारा चौंसठ चवरों का दुरानादेवों के द्वारा तीर्थकर प्रभु पर अलंकृत चौंसठ चँवर दुराये जाते हैं। (८) देव दुन्दुभि का बजना- देवों द्वारा आकाश में दुन्दुभि बजाई जाती है, जिसकी मधुर-ध्वनि चित्त को आनन्दित करने वाली होती है। (८/२८) अनन्त चतुष्टय-पूजा कवि ने इस रचना में अनन्त चतुष्टयों की पूजा भी प्रस्तुत की है। अनन्त चतुष्टय चार कार के हैं(१) अनन्त ज्ञान, (२) अनन्त-दर्शन, २. दे. जिनसेनकृत महापुराण- २३/६७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003998
Book TitleDevidas Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavati Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1994
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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