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________________ २० देवीदास-विलास वे गंगनरेश के वीर सेनापति चामुण्डराय के समान ही अपने लेखन-कार्य में लीन हो जाते थे। उनके काव्य में जहाँ-तहाँ व्यापार सम्बन्धी सन्दर्भ एवं उक्तियाँ भी इस बात की द्योतक हैं कि वे एक कुशल व्यापारी थे। देवीदास अपना व्यापार पूरी लगन और सच्चाई के साथ किया करते थे और हानि-लाभ के अवसरों पर अपनी समवृत्ति रखते थे। व्यापार उनके लिए मात्र एक न्यायोचित आजीविका का साधन मात्र था, उसे उन्होंने कभी भी साध्य नहीं माना। उनके लिए साध्य तो आत्मा का कल्याण था, इसलिए वे उतना ही अर्जन करते थे, जितनी कि उन्हें आवश्यकता रहती थी। उन्होंने अपनी “जोग-पच्चीसी'' नामकी रचना में व्यापार के प्रस्तुत-विधान द्वारा अप्रस्तुत का वर्णन किया है और अन्योक्ति के माध्यम से सांसारिक प्राणियों को उद्बोधन देने की चेष्टा की है। उन्हें व्यापार की सभी युक्तियों का अच्छा अनुभव था। इसलिए वे ब्याज़ पर कर्ज लेकर व्यापार करने के पक्ष में कभी नहीं रहे। क्योंकि उनकी यह पक्की धारणा थी कि कर्ज ले लेने से व्यापारी पर दोहरी मार पड़ती है और वह उसके बोझ से अधमरा जैसा हो जाता है। इसलिए उन्होंने व्यापारियों को कर्ज से दूर रहने तथा अधिक धनोपार्जन करने के लिए “हाय-हाय" न करने की सलाह दी है। कवि के अनुसार कम आमदनी से भी दो समय का भोजन आनन्द से मिल सकता है। जैसा कि उन्होंने स्वयं लिखा है "अरे हंसराई जैसी कहा तोहि सूझि परी। पूंजी लै पराई बंजु कीनो महाखोटो है। आप तेरी एक समय की कमाई को न टोटो है।” जोग., २/११/१३ तथा"मन वच तन पर-द्रव्य सों कियो बहुत व्यौपार। . पराधीनता करि परयो टोटो विविध प्रकार।। जोग., २/११/१२ (ख) बहुज्ञता जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है कि देवीदास केवल हिन्दी-भाषा के ही कवि नहीं, अपितु उन्होंने अपने स्वाध्याय के बल पर संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश आदि भाषाओं का ज्ञान प्राप्त कर उनके ग्रन्थों का हिन्दी-पद्यानुवाद करने में भी वे समर्थ हो सके। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003998
Book TitleDevidas Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavati Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1994
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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