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________________ .२९४ देवीदास-विलास उज्ज्वल तंदुल धोय के परिमल सु अखंड। निरख सकल परमातमा विकलप सब छंड। धर्मनाथ धरमज्ञ हो। देवन.।।४।। ॐ ह्री श्रीधर्मनाथजिनचरणाग्रे अक्षयपदप्राप्तये अक्षतम् निर्वपामीति स्वाहा। सुमन विधि परकार के कर धर महकात। मन वच तन करके सु लै जिनमन्दिर जात।। धर्मनाथ धरमज्ञ हो। देवन. ।।५।। ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनचरणाग्रे कामवाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। नाना रस व्यंजनभरे षटरस संयुक्त। लै विधिसौं अरचन चले जिन आगम उक्त।। धर्मनाथ धरमज्ञ हो। देवन. ।।६।। ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथक्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यम् निर्वपामीति स्वाहा। स्व-पर प्रकाशक ज्योति है तसु दीपक मांहि। सो लै हम जिनदेव के शरणागति जाहि।। धर्मनाथ धरमज्ञ हो। देवन. ।।७।। ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनचरणाग्रे मोहाधंकारविनाशनाय दीपम् निर्वपामीति स्वाहा। कृष्णागरु पावकविर्षे खेवत भरपूर। तन मन शुचिकर ल्यायके सर्वज्ञ हुजूर।। धर्मनाथ धरमज्ञ हो। देवन. ।।८।। ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनचरणाग्रे अष्टकर्मदहनाय धूपम् निर्वपामीति स्वाहा। लोंग सुपारी लाइची खारक बादाम। श्रीफल दाख पखारके दरमादिक आम। धर्मनाथ धरमज्ञ हो।देवन.।।९।।। ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनचरणाग्रे मोक्षफलप्राप्तये फलम् निर्वपामीति स्वाहा। जल चंदन आदिक लिये दरवें सव आठ। दर्व भाव विधि सौं उभै पढ़के मुख पाठ।। धर्मनाथ धरमज्ञ हो। देवन. ।।१०।। ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनचरणाग्रे अनर्घ्यपदप्राप्तये अयं निर्वपामीति स्वाहा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003998
Book TitleDevidas Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavati Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1994
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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