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________________ २९० देवीदास-विलास (१५) श्री अनन्तनाथ-जिनपूजा (१४) सेई लक्षिन सोबरन बरन सु धनुष पचास। पूजत पुण्य सु ऊपजै जिन अनन्त प्रति जास।।१।। ॐ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनचरणाग्रे पुष्पांजलिं क्षिपामि। अष्टक गीतिका अति सरस झारी दिपत भारी उभय कर धर ल्यायकैं, शिवकंत सन्मुख सलिल धारा दै सु मन-बच-काय कैं। जे तरन-तारन त्रिजगपति ईश्वर सुनर सुरशेष के, सिर नायके क्रम-कमल पूजों श्री अनन्त जिनेश के।।२।। ॐ ह्रीं श्रीअनन्तजिनचरणाग्रे जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलम् निर्वपामीति स्वाहा। धर सोभनीक सुरंग कुंकुम मध्य उत्तम थार के, घिस परम चन्दन हेत वन्दन दुःख निकन्दनहार के।। जे तरन तारन. . . . . . . . ।।३।। ॐ ह्रीं श्रीअनन्तजिनचरणाग्रे संसारतापविनाशनाय चन्दनम् निर्वपामीति स्वाहा। उज्ज्वल सु अक्षत लै सुगंधित जास परगट देहुरे, सुरझावने के हेत हम बाधे चतुर्गति देहुरे। जे तरन तारन . . . . . . . . ।।४।। ॐ ह्रीं श्रीअनन्तजिनचरणाग्रे अक्षयपदप्राप्तयेअक्षतम् निर्वपामीति स्वाहा। ले पहुप रितु के षट सु ऋतु के अमल नीर पखार के, निज शक्ति माफिक आप जिनके तासु उर अवधार के। जे तरन तारन . . . . . . . . .।।५।। ॐ ह्रीं श्रीअनन्तजिनचरणाग्रे कामवाणविध्वंसनाय पुष्पम् निर्वपामीति स्वाहा। नैवेद्य परम उमेद सो रचि सकल दोष सु हानि कैं, धरिये सु तन जिनराज के प्रतिबिम्ब अग्र सुआनि कै। जे तरन तारन . . . . . . . . . ।।६।। ॐ ह्रीं श्रीअनन्तजिनचरणाग्रे क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यम् निर्वपामीति स्वाहा। दीपक अडोल अमोल, रत्न जड़े महा सोवरन के, सेवक सु ल्यायो शरन आयो निकट भव दुःख हरन के। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003998
Book TitleDevidas Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavati Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1994
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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