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________________ संख्यावाची साहित्य खण्ड १७५ कवित्त गतागत माजत जे लखि जोति गहीर रही गति जोखि लजे तज मा। मानत खेल सुधी तन जासु सु जानत धीसु लखे तन मा।। मा हर जीव पसार सु नीमु मुनीसु रसा पव जी रह मा। मारग जो सुख मोह रचै न नचै रह मोख सुजोग रमा।।८।। दोहरा गतागत सुधी निपुन गुरुवर नऊं नरवरु गुन पुनि धीसु। सुखी सरन अरि कस करें कस करि अनरस खीसु।। कवित्त गतागत मास रहैं वन चार अपीत तपी अरचान बहैं रसमा। माछर भाव तजे सवहैं स सहैं वस जे तव-भार छमा।। मार ह. जित तेह नमौं सु सुमौं नह ते तजि नैंह रमा। मानत जे तप आनि धरे त तरे धनि आप तजे तनमा।।९।। दोहरा कटारबंध दुरित हरन नर हरत मन नमत चरन गुनवंत। विगत करन नरक सु गमन न मग कुटिल सुमहंत।। छप्पय कमलबंध मंडित परम स्वजोग रहे समकित समूह पग। विमुख रहत परभोग जानि करि कै असार जग।। अंतरंग बहिरंग दया तिन्हि कैं प्रकार ढिग। दो प्रकार कहि संग रहित मरजात सहित दिग। इव साधु चरन कमल नखजुग नमित सुरासुर पति सु खग। चित्त तासु परम अविचल अडुग सम सुजानि सुमेर नग।।१०।। दोहा तुकगुपत तजी विभव न सरन गहत तकि सुर सिव रस नीत। तनी सरवसि रसु कित तह गन रस नव भवि जीत।। १. यह पद जोग पच्चीसी में भी उपलब्ध है। दे. क्रम सं. २/११/११ २. यह दोहा विवेक-बत्तीसी में भी उपलब्ध है। दे. क्रम सं. २/१३/२० ३. यह दोहा विवेक-बत्तीसी में भी उपलब्ध है। दे. क्रम सं. २/१३/२२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003998
Book TitleDevidas Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavati Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1994
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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