SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 191
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संख्यावाची साहित्य खण्ड देव धर्म गुर ग्रंथ ये चारौं रत्न अमोल। परखि लैहिं भवि जौहरी अंतर कें द्रग खोल।।२३।। व्रत तप संजम आदि दै चउ विधि दान सपूत। चार रत्न इम परख बिनु निरफल सब करतूति।।२४।। जनम मरन वन महि भ्रमत सुहित रहित सुविसाल। रे जिय अंत मिल्यौ नहीं समकित बिनु चिरकाल।।२५।। अरति हरति कीरति रमति सारति कुगति विलाति। जगति सुमति सूरति सुअति भागति कुमति जमाति।।२६।। बृत तपादि करनी सहित चारि रत्न सरधान। यह समकित व्यवहार भवि फल दाइक परधान।।२७।। तजि कुधर्म तजि कैं कुगुरु तजि कुदेव दुरभेष। भैया भवि जो चहत हौ सिव स्वर्गादि विसेष।।२८।। सात विष्न को त्याग करि तजि मद अष्ट प्रकार। एक बार की मानियौं कहिवत बार हजार।।२९।। इहि प्रकार परनति प्रकट सम्यक दरसन मूल। उपजै तासु परंपरा निहचल मारग थूल।।३०।। जह निहचल परनति जगी भगी सकल विपरीत। पगी आप सौं आप जब निरभय निरमल रीति।।३१।। स्वपर हेत उद्दिम कियो देवियदास विगोइ। भव्य पुरिस अवधारियो यामैं कष्ट न कोइ।।३२।। चित्रवंध सब दोहरा वर विवेख की बात। भाषा परगट समझियो सुद्धीवंत जे तात।।३३।। (१४) दरसन छत्तीसी छप्पय आदि जिनेश्वर आदि अंत महावीर बखानौं। जिन्हि के जुग चरनारविंद नित प्रति उर आनौं।। परगट जिन दरसन सुपंथ ठानौ सुखकारन। ज्ञानावरनादिक सुअष्ट दुरबंध निवारन।। तसु पढ़त सुनत अहलाद अति परमारथ पथ कौं विदित। समुझैं सुं संत गुनवंत अति भाषा करि वरनौं कवित।।१।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003998
Book TitleDevidas Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavati Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1994
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy