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________________ संख्यावाची साहित्य खण्ड १३५ मारग सुमुक्ति उपदेश दिय ध्यावत धुनि गनधर समन। सो वीतराग सुख सार अति बहु प्रकार मंगल करन।।८।। रच्छक मो उर होहु देव-देवनि के देवा। भक्ति धरत उर हर्षि करत त्रिभुअन पति सेवा।। लेत अभै पदसार सुद्ध करतूति विचारत। हेय उपादि विकल्प त्यागि पुनि उर अवधारत।। आतम सुभाव भेदत सरस सब असुद्ध करनी हरन। परभिन्न परम पंडित भजत बहु प्रकार मंगल करन।।९।। कीरति होत अपार एक जिननाम धरत चित। पापपुंज परिहरत लेत अवतार भोग छित।। तीरथ दान करै समान जौ जिन पुज्जत नर। आनंद होत अपार सुक्ति पावत सुमुक्ति वर।। ईश्वर सु होत त्रिभुअन तिलक संत पुरिष सेवत चरन। सो भक्तिदेव अरिहंत की बहु प्रकार मंगल करन।।१०।। सिखिरि लोक सिर सिद्व सिला जह सिद्व विराज। धिय प्रमान नुति करौं अष्ट निर्मल गुन छा ।। श्रीसुमुक्ति संजुक्त भुक्त सुखसार अतिंद्रिय। समय सुद्व प्रनमौं सुताहि दातार परम धिय।। बलवीर्ज ज्ञान दरसन विमल सब असुद्व करनी हरन। उतपाद सिद्ध पुनि सहित ध्रुव बहु प्रकार मंगल करन।।११।। हौ त्रिभुवन पति नाथ देव दातार परमधन। लखत सुद्ध तुम ध्यान वीत विभ्रम विकार मन।। सील सिंध सुखकंद दास मम हौं सुभक्त तुव। दान देउ निज ज्ञान सरन आयो अनाथ हुव।। सब काज सरत तुम अवधरत जीति कम भवदधि तरन। जुत परम भक्ति उर धरि नौं बहु प्रकार मंगल करन।।१२।। पंचमगति राजत प्रमान पद देव निरंजन। माया मोह विनासि रासि गुन गन भय भंजन।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003998
Book TitleDevidas Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavati Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1994
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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