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________________ १२८ देवीदास-विलास खोजु करौ निज घट विर्षे वही न दूजौ ठाम। जिय जाके आधार तूं सार आतमाराम।।२०।। सो दरलभ संसार मैं परम अपूरव लाभु। ताकौं तूं जिन दिष्टि सौ निरखु विवर्जित गाभु।।२१।। वारंबार त्रिसुद्धि करि धरौ आत्माध्यान। राग दोष दौ परिहरौ जौ चाहत निरवान।।२२।। रागदिक के परिहरै देखौ निरमल देव। एक स्वरूप सु जगमगै निरविकलप स्वयमेव।।२३।। जो जगु देखे देखु तिहि देखनहार न अन्य। सो स्वरूप समदिष्टि सौं सहज होइ उतपन्य।।२४।। को देखै किहि देखिये दुविधा कहूँ न रंच। सदा अखंडित सुथिर पद रहित सकल परपंच।।२५।। सून्यौ सो सून्यौं सही सूनी दसा न जीव। सुन्य सुभाव सु परिहरौ सुनि जिन वचन सदीव।।२६।। परमानंद मई सदा ज्ञान चरन द्रग लीक। सो निहचलपद आतमा बसै हृदै तहतीक।।२७।। सन्य सभावहि परिनवै सो परभाव निदान। चिदानंद सूनौ नहीं जिनवर वचन प्रमान।।२८।। पावत परमातम सु पद छूट सकल उपाधि। टूटै तांतौ जगत सौं लूटे सुगुन समाधि।।२९।। केवलज्ञान स्वरूपमय दिष्टा परम सुछंद। प्रगटै निज अनुभूति जुत पर-परनति करि मंद।।३०।। मनवचकाया सौं नहीं समरस भाव समेत। अप्पा आपु विचार जिय यह तेरौं निज हेत।।३१।। जो जुग जानैं जानु जिहि वही जानिवे जोग। और न कोई दूसरौ सहित संत उपयोग।।३२।। सोहं सोहं सो सवै जिया न दूजौ भेद। बारंबार सु चिंतवत मिटै कर्म क्रत खेद।।३३।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003998
Book TitleDevidas Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavati Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1994
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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