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________________ प्रस्तावना १०३ सेवक साहिब की दुविधा न रहे प्रभजू करि लेउ भलाई। पुकार., २/८/४ निर्मलनाथ करो हमारी मति ज्यौं आपनौ सो करो सब स्वारथ।। जिनवन्दना., १/४/३ यद्यपि सूर और देवीदास के भक्ति-स्वर आपस में मिलते-जुलते हैं, तथापि देवीदास में कुछ विशेषता बनी रहती हैं। उनके काव्य में समानता होते हुए भी उनकी प्रेरणा के मूल स्वर भिन्न हैं। सूर ने सगुण भक्ति को अपनाकर निर्गुण का खण्डन किया है, परन्तु जैन-भक्ति में सगुण-निर्गुण जैसी भिन्न धाराएँ नहीं है, क्योंकि उसमें जो अरहन्त सगुण-ब्रह्म के रूप में पूज्य है, वही अघातिया कर्मों का हनन करके, निर्गुण-ब्रह्म भी बन जाता है। इसीलिए जैन भक्ति और अध्यात्म में कोई अन्तर नहीं है। दोनों का समन्वय ही जैन-भक्ति का आधार है। इसी रूप में देवीदास ने जिनेन्द्र देव की सगुण-निर्गुण भक्ति को अपनाया है। ____दोनों ने ही अपने-अपने आराध्यों के समक्ष दीनता युक्त भक्ति करके याचना की है, किन्तु सूर की अभिलाषा तो उनके आराध्य ने स्वयं ही आकर पूर्ण कर दी, किन्तु देवीदास का आराध्य तो वीतरागी है, वह तो स्वयं नहीं आ सकता, जैसा कि आचार्य समन्तभद्र ने कहा है न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे न निन्दया नाथ विवान्तबैरे। तथापि ते पुण्यगुणस्मृतिर्नः पुनाति चित्तं दुरिताञ्जनेभ्यः।। स्वयम्भू. पृ. ९६ इसलिए उसके स्मरण, कीर्तन और ध्यान से जिन पुण्य-प्रकृतियों का बन्ध हुआ, उन्हीं से जैन भक्त को लौकिक और अलौकिक सुखों की प्राप्ति होती है। (१४) दासभक्ति - जैन परम्परा में नवधा-भक्ति न होने पर भी जैन-कवियों ने उसके अंगों को अपने काव्य में स्थान दिया है। तुलसीदास ने भक्त की दीनता एवं असमर्थता को प्रदर्शित करने में भक्ति के नौ साधन- श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वन्दन, दास्य, सख्य एवं आत्मनिवेदन का निरूपण किया है। जैन कवि देवीदास ने क्रम-बद्ध रूप में तो इनकी चर्चा नहीं की, लेकिन आत्मशुद्धि के लिए रागात्मिकाभक्ति को अपनाते समय उनके पदों में इनकी झाँकी अवश्य दिखलाई पड़ जाती Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003998
Book TitleDevidas Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavati Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1994
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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