SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 46
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कल्याण का मार्ग ने अनादि काल से अपनी सेवा नहीं की केवल पर पदार्थों के संग्रह में ही अपने प्रिय जीवन को भुला दिया। भगवान अरहन्त का उपदेश है “यदि अपना कल्याण चाहते हो तो पर पदार्थों से आत्मीयता छोड़ो ।” - २६. अभिप्राय यदि निर्मल है तो बाह्य पदार्थ कल्याण में बाधक और साधक कुछ भी नहीं है। साधक और बधिक तो अपनी ही परिणति है। ३०. कल्याण का मार्ग सन्मति में है अन्यथा मानव धर्म का दुरुपयोग है। ३१. कल्याण के अर्थ संसार की प्रवृत्ति को लक्ष्य न बना कर अपनी मलिनता को हटाने का प्रयत्न करना चाहिये । ३२. अर्जित कर्मों को समता भाव से भोग लेना ही कल्याण के उदय में सहायक है। ३३. निमित्त कारणों के ही ऊपर अपने कल्याण और अकल्याण के मार्ग का निर्माण करना अपनी दृष्टि को हीन करना है। बाहर की ओर देखने से कुछ न होगा आत्मपरिणति को देखो, उसे विकृति से संरक्षित रखो तभी कल्याण के अधिकारी हो सकोगे। ३४. कल्याण का मार्ग आत्मनिर्मलता में है, बाह्याडम्बर में नहीं। मूर्ति बनाने के योग्य शिला का अस्तित्व सङ्गमर्मर की खनि में होता है मारवाड़ के बालुकापुञ्ज में नहीं। ३५. पर की रक्षा करो परन्तु उसमें अपने आपको न भूलो। ____ ३६. वही जीव कल्याण का पात्र होगा जो बुरे चिन्तन से दूर रहेगा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003997
Book TitleVarni Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1950
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy