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________________ सम्यग्दर्शन हम सम्यग्दृष्टि हैं । कोई क्या बतलायगा कि तुम सम्यग्दृष्टि हो या मिध्यादृष्टि। अप्रत्याख्यानावरण कषाय का संस्कार छह माह से ज्यादा नहीं चलता। यदि आपके किसी से लड़ाई होने पर छह माह के बाद तक बदला लेने की भावना रहती है तो समझ लो अभी हम मिथ्यावादी हैं । कषाय के असंख्यात लोक प्रमाण स्थान है उनमें मन का स्वरूप यों ही शिथिल हो जाना प्रशम गुण है । मिध्यादृष्टि अवस्था के समय इस जीव को बिषय कषाय में जैसी स्वच्छन्द प्रवृत्ति होती है। वैसी सम्यग्दर्शन होने पर नहीं होती । यह दूसरी बात है कि चारित्र मोह के उदय से वह उसे छोड़ नहीं सकता हो पर प्रवृत्ति में शैथिल्य अवश्य आ जाता है । २९५ प्रशम का एक अर्थ यह भी है जो पूर्व को अपेक्षा अधिक ग्राद्य है - " सद्यः कृतापराधी जीवों पर भी रोष उत्पन्न नहीं होना " प्रशम कहलाता है। बहुरूपिणी विद्या सिद्ध करते समय रामचन्द्र जी ने रावण पर जो रोष नहीं किया था वह इसका उत्तम उदाहरण है । प्रशम गुण तब तक नहीं हो सकता जब तक अनन्तानुवन्धी सम्बन्धी क्रोध विद्यमान है। उसके छूटते ही प्रशम गुण प्रकट हो जाता है। क्रोध हो क्या अनन्तानुबन्धी सम्बन्धी मान माया लोभ - सभी कषाय प्रशम गुण के घातक हैं । संसार और संसार के कारणों से भीत होना हो संवेग है । जिसके संवेग गुण प्रकट हो जाता है वह सदा आत्मा में बिकार के कारण भूत पदार्थों से जुदा होने के लिये छटपटाता रहता है । सब जीवा में मैत्री भावका होना ही अनुकम्पा है । सम्य दृष्टि जीव सब जीवोंको समान शक्ति का धारी अनुभव करता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003997
Book TitleVarni Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1950
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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